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अय्यूब

Chapter 1

1. ऊज़ देश में अय्यूब नाम एक पुरुष या; वह खरा और सीधा या और परमेश्वर का भय मानता और बुराई से पके रहता या।
2. उसके सात बेटे और तीन बेटियां उत्पन्न हुई।
3. फिर उसके सात हजार भेड़-बकरियां, तीन हजार ऊंट, पांच सौ जोड़ी बैल, और पांच सौ गदहियां, और बहुत ही दास-दासियां यीं; वरन उसके इतनी सम्पत्ति यी, कि पूरबियोंमें वह सब से बड़ा या।
4. उसके बेटे उपके अपके दिन पर एक दूसरे के घर में खाने-पीने को जाया करते थे; और अपक्की तीनोंबहिनोंको अपके संग खाने-पीने के लिथे बुलवा भेजते थे।
5. और जब जब जेवनार के दिन पूरे हो जाते, तब तब अय्यूब उन्हें बुलवाकर पवित्र करता, और बड़ी भोर उठकर उनकी गिनती के अनुसार होमबलि चढ़ाता या; क्योंकि अय्यूब सोचता या, कि कदाचित्‌ मेरे लड़कोंने पाप करके परमेश्वर को छोड़ दिया हो। इसी रीति अय्यूब सदैव किया करता या।
6. एक दिन यहोवा परमेश्वर के पुत्र उसके साम्हने उपस्यित हुए, और उनके बीच शैतान भी आया।
7. यहोवा ने शैतान से पूछा, तू कहां से आता है? शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, कि पृय्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ।
8. यहोवा ने शैतान से पूछा, क्या तू ने मेरे दास अय्यूब पर ध्यान दिया है? क्योंकि उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है।
9. शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, क्या अय्यूब परमेश्वर का भय बिना लाभ के मानता है?
10. क्या तू ने उसकी, और उसके घर की, और जो कुछ उसका है उसके चारोंओर बाड़ा नहीं बान्धा? तू ने तो उसके काम पर आशीष दी है, और उसकी सम्पत्ति देश भर में फैल गई है।
11. परन्तु अब अपना हाथ बढ़ाकर जो कुछ उसका है, उसे छू; तब वह तेरे मुंह पर तेरी निन्दा करेगा।
12. यहोवा ने शैतान से कहा, सुन, जो कुछ उसका है, वह सब तेरे हाथ में है; केवल उसके शरीर पर हाथ न लगाना। तब शैतान यहोवा के साम्हने से चला गया।
13. एक दिन अय्यूब के बेटे-बेटियां बड़े भाई के घर में खाते और दाखमधु पी रहे थे;
14. तब एक दूत अय्यूब के पास आकर कहने लगा, हम तो बैलोंसे हल जोत रहे थे, और गदहियां उनके पास चर रही यी,
15. कि शबा के लोग धावा करके उनको ले गए, और तलवार से तेरे सेवकोंको मार डाला; और मैं ही अकेला बचकर तुझे समाचार देने को आया हूँ।
16. वह अभी यह कह ही रहा या कि दूसरा भी आकर कहने लगा, कि परमेश्वर की आग आकाश से गिरी और उस से भेड़-बकरियां और सेवक जलकर भस्म हो गए; और मैं ही अकेला बचकर तुझे समाचार देने को आया हूँ।
17. वह अभी यह कह ही रहा या, कि एक और भी आकर कहने लगा, कि कसदी लोग तीन गोल बान्धकर ऊंटोंपर धावा करके उन्हें ले गए, और तलवार से तेरे सेवकोंको मार डाला; और मैं ही अकेला बचकर तुझे समाचार देने को आया हूँ।
18. वह अभी यह कह ही रहा या, कि एक और भी आकर कहने लगा, तेरे बेट-बेटियां बड़े भाई के घर में खाते और दाखमधु पीते थे,
19. कि जंगल की ओर से बड़ी प्रचणड वायु चक्की, और घर के चारोंकोनोंको ऐसा फोंका मारा, कि वह जवानोंपर गिर पड़ा और वे मर गए; और मैं ही अकेला बचकर तुझे समाचार देने को आया हूँ।
20. तब अय्यूब उठा, और बागा फाड़, सिर मुंड़ाकर भूमि पर गिरा और दणडवत्‌ करके कहा,
21. मैं अपक्की मां के पेट से नंगा निकला और वहीं नंगा लौट जाऊंगा; यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है।
22. इन सब बातोंमें भी अय्यूब ने न तो पाप किया, और न परमेश्वर पर मूर्खता से दोष लगाया।

Chapter 2

1. फिर एक और दिन यहोवा परमेश्वर के पुत्र उसके साम्हने उपस्यित हुए, और उनके बीच शैतान भी उसके साम्हने उपस्यित हुआ।
2. यहोवा ने शैतान से पूछा, तू कहां से आता है? शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, कि इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ।
3. यहोवा ने शैतान से पूछा, क्या तू ने मेरे दास अय्यूब पर ध्यान दिया है कि पृय्वी पर उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है? और यद्यापि तू ने मुझे उसको बिना कारण सत्यानाश करते को उभारा, तौभी वह अब तक अपक्की खराई पर बना है।
4. शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, खाल के बदले खाल, परन्तु प्राण के बदले मनुष्य अपना सब कुछ दे देता है।
5. सो केवल अपना हाथ बढ़ाकर उसकी हड्डियां और मांस छू, तब वह तेरे मुंह पर तेरी निन्दा करेगा।
6. यहोवा ने शैतान से कहा, सुन, वह तेरे हाथ में है, केवल उसका प्राण छोड़ देना।
7. तब शैतान यहोवा के साम्हने से निकला, और अय्यूब को पांव के तलवे से ले सिर की चोटी तक बड़े बड़े फोड़ोंसे पीड़ित किया।
8. तब अय्यूब खुजलाने के लिथे एक ठीकरा लेकर राख पर बैठ गया।
9. तब उसकी स्त्री उस से कहने लगी, क्या तू अब भी अपक्की खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा।
10. उस ने उस से कहा, तू एक मूढ़ स्त्री की सी बातें करती है, क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दु:ख न लें? इन सब बातोंमें भी अय्यूब ने अपके मुंह से कोई पाप नहीं किया।
11. जब तेमानी एलीपज, और शूही बिलदद, और नामाती सोपर, अय्यूब के इन तीन मित्रोंने इस सब विपत्ति का समाचार पाया जो उस पर पक्की यीं, तब वे आपस में यह ठानकर कि हम अय्यूब के पास जाकर उसके संग विलाप करेंगे, और उसको शान्ति देंगे, अपके अपके यहां से उसके पास चले।
12. जब उन्होंने दूर से आंख उठाकर अय्यूब को देखा और उसे न चीन्ह सके, तब चिल्लाकर रो उठे; और अपना अपना बागा फाड़ा, और आकाश की ओर धूलि उड़ाकर अपके अपके सिर पर डाली।
13. तब वे सात दिन और सात रात उसके संग भूमि पर बैठे रहे, परन्तु उसका दु:ख बहुत ही बड़ा जान कर किसी ने उस से एक भी बात न कही।

Chapter 3

1. इसके बाद अय्यूब मुंह खोलकर अपके जन्मदिन को धिम्मारने
2. और कहने लगा,
3. वह दिन जल जाए जिस में मैं उत्पन्न हुआ, और वह रात भी जिस में कहा गया, कि बेटे का गर्भ रहा।
4. वह दिन अन्धिक्कारनेा हो जाए ! ऊपर से ईश्वर उसकी सुधि न ले, और न उस में प्रकाश होए।
5. अन्धिक्कारनेा और मृत्यु की छाया उस पर रहे। बादल उस पर छाए रहें; और दिन को अन्धेरा कर देनेवाली चीजोंउसे डराएं।
6. घोर अन्धकार उस रात को पकड़े; वर्ष के दिनोंके बीच वह आनन्द न करने पाए, और न महीनोंमें उसकी गिनती की जाए।
7. सुनो, वह रात बांफ हो जाए; उस में गाने का शब्द न सुन पके
8. जो लोग किसी दिन को धिक्कारते हैं, और लिब्यातान को छेड़ने में निपुण हैं, उसे ध्क्िकारें।
9. उसकी संध्या के तारे प्रकाश न दें; वह उजियाले की बाट जोहे पर वह उसे न मिले, वह भोर की पलकोंको भी देखने न पाए;
10. क्योंकि उस ने मेरी माता की कोख को बन्द न किया और कष्ट को मेरी दृष्टि से न छिपाया।
11. मैं गर्भ ही में क्योंन मर गया? मैं पेट से निकलते ही मेरा प्राण क्योंन छूटा?
12. मैं घुटनोंपर क्योंलिया गया? मैं छातियोंको क्योंपीने पाया?
13. ऐसा न होता तो मैं चुपचाप पड़ा रहता, मैं सोता रहता और विश्रम करता,
14. और मैं पृय्वी के उन राजाओं और मन्त्रियोंके साय होता जिन्होंने अपके लिथे सुनसान स्यान बनवा लिए,
15. वा मैं उन राजकुमारोंके साय होता जिनके पास सोना या जिन्होंने अपके घरोंको चान्दी से भर लिया या;
16. वा मैं असमय गिरे हुए गर्भ की नाई हुआ होता, वा ऐसे बच्चोंके समान होता जिन्होंने उजियाले को कभी देखा ही न हो।
17. उस दशा में दुष्ट लोग फिर दु:ख नहीं देते, और यके मांदे विश्रम पाते हैं।
18. उस में बन्धुए एक संग सुख से रहते हैं; और परिश्र्म करानेवाले का शब्द नहीं सुनते।
19. उस में छोटे बड़े सब रहते हैं, और दास अपके स्वामी से स्वतन्त्र रहता है।
20. दु:खियोंको उजियाला, और उदास मनवालोंको जीवन क्योंदिया जाता है?
21. वे मृत्यु की बाट जोहते हैं पर वह आती नहीं; और गड़े हुए धन से अधिक उसकी खोज करते हैं;
22. वे क़ब्र को पहुंचकर आनन्दित और अत्यन्त मगन होते हैं।
23. उजियाला उस पुरुष की क्योंमिलता है जिसका मार्ग छिपा है, जिसके चारोंओर ईश्वर ने घेरा बान्ध दिया है?
24. मुझे तो रोटी खाने की सन्ती लम्बी लम्बी सांसें आती हैं, और मेरा विलाप धारा की नाई बहता रहता है।
25. क्योंकि जिस डरावनी बात से मैं डरता हूँ, वही मुझ पर आ पड़ती है, और जिस बात से मैं भय खाता हूँ वही मुझ पर आ जाती है।
26. मुझे न तो चैन, न शान्ति, न विश्रम मिलता है; परन्तु दु:ख ही आता है।

Chapter 4

1. तब तेमानी एलीपज ने कहा,
2. यदि कोई तुझ से कुछ कहने लगे, तो क्या तुझे बुरा लगेगा? परन्तु बोले बिना कौन रह सकता है?
3. सुन, तू ने बहुतोंको शिझा दी है, और निर्बल लोगोंको बलवन्त किया है।
4. गिरते हुओं को तू ने अपक्की बातोंसे सम्भाल लिया, और लड़खड़ाते हुए लोगोंको तू ने बलवन्त किया।
5. परन्तु अब विपत्ति तो तुझी पर आ पक्की, और तू निराश हुआ जाता है; उस ने तुझे छुआ और तू घबरा उठा।
6. क्या परमेश्वर का भय ही तेरा आसरा नहीं? और क्या तेरी चालचलन जो खरी है तेरी आशा नहीं?
7. क्या तुझे मालूम है कि कोई निदॉष भी कभी नाश हुआ है? या कहीं सज्जन भी काट डाले गए?
8. मेरे देखने में तो जो पाप को जोतते और दु:ख बोते हैं, वही उसको काटते हैं।
9. वे तो ईश्वर की श्वास से नाश होते, और उसके क्रोध के फोके से भस्म होते हैं।
10. सिंह का गरजना और हिंसक सिंह का दहाड़ना बन्द हो आता है। और जवान सिंहोंके दांत तोड़े जाते हैं।
11. शिकार न पाकर बूढ़ा सिंह मर जाता है, और सिंहनी के वच्चे तितर बितर हो जाते हैं।
12. एक बात चुपके से मेरे पास पहुंचाई गई, और उसकी कुछ भनक मेरे कान में पक्की।
13. रात के स्वप्नोंकी चिन्ताओं के बीच जब मनुष्य गहरी निद्रा में रहते हैं,
14. मुझे ऐसी यरयराहट और कंपकंपी लगी कि मेरी सब हड्डियां तक हिल उठीं।
15. तब एक आत्मा मेरे साम्हने से होकर चक्की; और मेरी देह के रोएं खड़े हो गए।
16. वह चुपचाप ठहर गई और मैं उसकी आकृति को पहिचान न सका। परन्तु मेरी आंखोंके साम्हने कोई रुप या; पहिले सन्नाटा छाया रहा, फिर मुझे एक शब्द सुन पड़ा,
17. क्या नाशमान मनुष्य ईश्वर से अधिक न्यायी होगा? क्या मनुष्य अपके सृजनहार से अधिक पवित्र हो सकता है?
18. देख, वह अपके सेवकोंपर भरोसा नहीं रखता, और अपके स्वर्गदूतोंको मूर्ख ठहराता है;
19. फिर जो मिट्टी के घरोंमें रहते हैं, और जिनकी नेव मिट्टी में डाली गई है, और जो पतंगे की नाई पिस जाते हैं, उनकी क्या गणना।
20. वे भोर से सांफ तक नाश किए जाते हैं, वे सदा के लिथे मिट जाते हैं, और कोई उनका विचार भी नहीं करता।
21. क्या उनके डेरे की डोरी उनके अन्दर ही अन्दर नहीं कट जाती? वे बिना बुद्धि के ही मर जाते हैं !

Chapter 5

1. पुकार कर देख; क्या कोई है जो तुझे उत्तर देगा? और पवित्रोंमें से तू किस की ओर फिरेगा?
2. क्योंकि मूढ़ तो खेद करते करते नाश हो जाता है, और भोला जलते जलते मर मिटता है।
3. मैं ने मूढ़ को जड़ माड़ते देखा है; परन्तु अचानक मैं ने उसके वासस्यान को धिक्कारा।
4. उसके लड़केबाले उद्धार से दूर हैं, और वे फाटक में पीसे जाते हैं, और कोई नहीं है जो उन्हें छुड़ाए।
5. उसके खेत की उपज भूखे लोग खा लेते हैं, वरन कटीली बाड़ में से भी निकाल लेते हैं; और प्यासा उनके धन के लिथे फन्दा लगाता है।
6. क्योंकि विपत्ति धूल से उत्पन्न नहीं होती, और न कष्ट भूमि में से उगता है;
7. परन्तु जैसे चिंगारियां ऊपर ही ऊपर को उड़ जाती हैं,वैसे ही मनुष्य कष्ट ही भोगने के लिथे उत्पन्न हुआ है।
8. परन्तु मैं तो ईश्वर ही को खोजता रहूंगा और अपना मुक़द्दमा परमेश्वर पर छोड़ दूंगा।
9. वह तो एसे बड़े काम करता है जिनकी याह नहीं लगती, और इतने आश्चर्यकर्म करता है, जो गिने नहीं जाते।
10. वही पृय्वी के ऊपर वर्षा करता, और खेतोंपर जल बरसाता है।
11. इसी रीति वह नम्र लोगोंको ऊंचे स्यान पर बिठाता है, और शोक का पहिरावा पहिने हुए लोग ऊंचे पर पहुचकर बचते हैं।
12. वह तो धूर्त्त लोगोंकी कल्पनाएं व्यर्य कर देता है, और उनके हाथोंसे कुछ भी बन नहीं पड़ता।
13. वह बुद्धिमानोंको उनकी धूर्त्तता ही में फंसाता है; और कुटिल लोगोंकी युक्ति दूर की जाती है।
14. उन पर दिन को अन्धेरा छा जाता है, और दिन दुपहरी में वे रात की नाई टटोलते फिरते हैं।
15. परन्तु वह दरिद्रोंको उनके वचनरुपी तलवार से और बलवानोंके हाथ से बचाता है।
16. इसलिथे कंगालोंको आशा होती है, और कुटिल मनुष्योंका मुंह बन्द हो जाता है।
17. देख, क्या ही धन्य वह मनुष्य, जिसको ईश्वर ताड़ना देता है; इसलिथे तू सर्वशक्तिमान की ताड़ना को तुच्छ मत जान।
18. क्योंकि वही घायल करता, और वही पट्टी भी बान्धता है; वही मारता है, और वही अपके हाथोंसे चंगा भी करता है।
19. वह तुझे छ:विपत्तियोंसे छुड़ाएगा; वरन सात से भी तेरी कुछ हानि न होने पाएगी।
20. अकाल में वह तुझे मुत्यु से, और युद्ध में तलवार की धार से बचा लेगा।
21. तू वचनरूपी कोड़े से बचा रहेगा और जब विनाश आए, तब भी तुझे भय न होगा।
22. तू उजाड़ और अकाल के दिनोंमें हँसमुख रहेगा, और तुझे बनैले जन्तुओं से डर न लगेगा।
23. वरन मैदान के पत्यर भी तुझ से वाचा बान्धे रहेंगे, और वनपशु तुझ से मेल रखेंगे।
24. और तुझे निश्चय होगा, कि तेरा डेरा कुशल से है, और जब तू अपके निवास में देखे तब कोई वस्तु खेई न होगी।
25. तुझे यह भी निश्चित होगा, कि मेरे बहुत वंश होंगे। और मेरे सन्तान पृय्वी की घास के तुल्य बहुत होंगे।
26. जैसे पूलियोंका ढेर समय पर खलिहान में रखा जाता है, वैसे ही तू पूरी अवस्या का होकर क़ब्र को पहुंचेगा।
27. देख, हम ने खोज खोजकर ऐसा ही पाया है; इसे तू सुन, और अपके लाभ के लिथे ध्यान में रख।

Chapter 6

1. फिर अय्यूब ने कहा,
2. भला होता कि मेरा खेद तौला जाता, और मेरी सारी विपत्ति तुला में धरी जाती !
3. क्योंकि वह समुद्र की बालू से भी भारी ठहरती; इसी कारण मेरी बातें उतावली से हूई हैं।
4. क्योंकि सर्वशक्तिमान के तीर मेरे अन्दर चुभे हैं; और उनका विष मेरी आत्मा में वैठ गया है ;ईश्वर की भयंकर बात मेरे विरुद्ध पांति बान्धे हैं।
5. जब बनैले गदहे को घास मिलती, तब क्या वह रेंकता है? और बैल चारा पाकर क्या डकारता है?
6. जो फीका है वह क्या बिना नमक खाया जाता है? क्या अणडे की सफेदी में भी कुछ स्वाद होता है?
7. जिन वस्तुओं को मैं छूना भी नहीं चाहता वही मानो मेरे लिथे घिनौना आहार ठहरी हैं।
8. भला होता कि मुझे मुंह मांगा वर मिलता और जिस बात की मैं आशा करता हूँ वह ईश्वर मुझे दे देता !
9. कि ईश्वर प्रसन्न होकर मुझे कुचल डालता, और हाथ बढ़ाकर मुझे काट डालता !
10. यही मेरी शान्ति का कारण; वरन भारी पीड़ा में भी मैं इस कारण से उछल पड़ता; क्योंकि मैं ने उस पवित्र के वचनोंका कभी इनकार नहीं किया।
11. मुझ में बल ही क्या है कि मैं आशा रखूं? और मेरा अन्त ही क्या होगा, कि मैं धीरज धरूं?
12. क्या मेरी दृढ़ता पत्यरोंकी सी है? क्या मेरा शरीर पीतल का है?
13. क्या मैं निराधार नहीं हूँ? क्या काम करने की शक्ति मुझ से दूर नहीं हो गई?
14. जो पड़ोसी पर कृपा नहीं करता वह सर्वशक्तिमान का भय मानना छोड़ देता है।
15. मेरे भाई नाले के समान विश्वासघाती हो गए हैं, वरन उन नालोंके समान जिनकी धार सूख जाती है;
16. और वे बरफ के कारण काले से हो जाते हैं, और उन में हिम छिपा रहता है।
17. परन्तु जब गरमी होने लगती तब उनकी धाराएं लोप हो जाती हैं, और जब कड़ी धूप पड़ती है तब वे अपक्की जगह से उड़ जाते हैं
18. वे घूमते घूमते सूख जातीं, और सुनसान स्यान में बहकर नाश होती हैं।
19. तेमा के बनजारे देखते रहे और शबा के काफिलेवालोंने उनका रास्ता देखा।
20. वे लज्जित हुए क्योंकि उन्होंने भरोसा रखा या और वहां पहुचकर उनके मुंह सूख गए।
21. उसी प्रकार अब तुम भी कुछ न रहे; मेरी विपत्ति देखकर तुम डर गए हो।
22. क्या मैं ने तुम से कहा या, कि मुझे कुछ दो? वा उपक्की सम्पत्ति में से मेरे लिथे घूस दो?
23. वा मुझे सतानेवाले के हाथ से बचाओ? वा उपद्रव करनेवालोंके वश से छुड़ा लो?
24. मुझे शिझा दो और मैं चुप रहूंगा; और मुझे समझाओ, कि मैं ने किस बान में चूक की है।
25. सच्चाई के वचनोंमें कितना प्रभाव होता है, परन्तु तुम्हारे विवाद से क्या लाभ होता है?
26. क्या तुम बातें पकड़ने की कल्पना करते हो? निराश जन की बातें तो वायु की सी हैं।
27. तुम अनायोंपर चिट्ठी डालते, और अपके मित्र को बेचकर लाभ उठानेवाले हो।
28. इसलिथे अब कृपा करके मुझे देखो; निश्चय मैं तुम्हारे साम्हने कदापि फूठ न बोलूंगा।
29. फिर कुछ अन्याय न होने पाए; फिर इस मुक़द्दमे में मेरा धर्म ज्योंका त्योंबना है, मैं सत्य पर हूँ।
30. क्या मेरे वचनोंमें कुछ कुटिलता है? क्या मैं दुष्टता नहीं पहचान सकता?

Chapter 7

1. क्या मनुष्य को पृय्वी पर कठिन सेवा करनी नहीं पड़ती? क्या उसके दिन मजदूर के से नहीं होते?
2. जैसा कोई दास छाया की अभिलाषा करे, वा मजदूर अपक्की मजदूरी की आशा रखे;
3. वैसा ही मैं अनर्य के महीनोंका स्वामी बनाया गया हूँ, और मेरे लिथे क्लेश से भरी रातें ठहराई गई हैं।
4. जब मैं लेट लाता, तब कहता हूँ, मैं कब उठूंगा? और रात कब बीतेगी? और पौ फटने तक छटपटाते छटपटाते उकता जाता हूँ।
5. मेरी देह कीड़ोंऔर और मिट्टी के ढेलोंसे ढकी हुई है; मेरा चमड़ा सिमट जाता, और फिर गल जाता है।
6. मेरे दिन जुलाहे की धड़की से अधिक फुतीं से चलनेवाले हैं और निराशा में बीते जाते हैं।
7. याद कर कि मेरा जीवन वायु ही है; और मैं अपक्की आंखोंसे कल्याण फिर न देखूंगा।
8. जो मुझे अब देखता है उसे मैं फिर दिखाई न दूंगा; तेरी आंखें मेरी ओर होंगी परन्तु मैं न मिलूंगा।
9. जैसे बादल छटकर लोप हो जाता है, वैसे ही अधोलोक में उतरनेवाला फिर वहां से नहीं लौट सकता;
10. वह अपके घर को फिर लौट न आएगा, और न अपके स्यान में फिर मिलेगा।
11. इसलिथे मैं अपना मुंह बन्द न रखूंगा; अपके मन का खेद खोलकर कहूंगा; और अपके जीव की कड़ुवाहट के कारण कुड़कुड़ाता रहूंगा।
12. क्या मैं समुद्र हूँ, वा मगरमच्छ हूँ, कि तू मुझ पर पहरा बैठाता है?
13. जब जब मैं सोचता हूं कि मुझे खाट पर शान्ति मिलेगी, और बिछौने पर मेरा खेद कुछ हलका होगा;
14. तब तब तू मुझे स्वप्नोंसे घबरा देता, और दर्शनोंसे भयभीत कर देता है;
15. यहां तक कि मेरा जी फांसी को, और जीवन से मृत्यु को अधिक चाहता है।
16. मुझे अपके जीवन से घृणा आती है; मैं सर्वदा जीवित रहना नहीं चाहता। मेरा जीवनकाल सांस सा है, इसलिथे मुझे छोड़ दे।
17. मनुष्य क्या है, कि तू उसे महत्व दे, और अपना मन उस पर लगाए,
18. और प्रति भोर को उसकी सुधि ले, और प्रति झण उसे जांचता रहे?
19. तू कब तक मेरी ओर आंख लगाए रहेगा, और इतनी देर के लिथे भी मुझे न छोड़ेगा कि मैं अपना यूक निगल लूं?
20. हे मनुष्योंके ताकनेवाले, मैं ने पाप तो किया होगा, तो मैं ने तेरा क्या बिगाड़ा? तू ने क्योंमुझ को अपना निशाना बना लिया है, यहां तक कि मैं अपके ऊपर आपक्की बोफ हुआ हूँ?
21. और तू क्योंमेरा अपराध झमा नहीं करता? और मेरा अधर्म क्योंदूर नहीं करता? अब तो मैं मिट्टी में सो जाऊंगा, और तू मुझे यत्न से ढूंढ़ेगा पर मेरा पता नहीं मिलेगा।

Chapter 8

1. तब शूही बिलदद ने कहा,
2. तू कब तक ऐसी ऐसी बातें करता रहेगा? और तेरे मुंह की बातें कब तक प्रचणड वायु सी रहेगी?
3. क्या ईश्वर अन्याय करता है? और क्या सर्वशक्तिमान धर्म को उलटा करता है?
4. यदि तेरे लड़केबालोंने उसके विरुद्ध पाप किया है, तो उस ने उनको उनके अपराध का फल भुगताया है।
5. तौभी यदि तू आप ईश्वर को यत्न से ढूंढ़ता, और सर्वशक्तिमान से गिड़गिड़ाकर बिनती करता,
6. और यदि तू निर्मल और धमीं रहता, तो निश्चय वह तेरे लिथे जागता; और तेरी धमिर्कता का निवास फिर ज्योंका त्योंकर देता।
7. चाहे तेरा भाग पहिले छोटा ही रहा हो परन्तु अन्त में तेरी बहुत बढती होती।
8. अगली पीढ़ी के लोगोंसे तो पूछ, और जो कुछ उनके पुरखाओं ने जांच पड़ताल की है उस पर ध्यान दे।
9. क्योंकि हम तो कल ही के हैं, और कुछ नहीं जानते; और पृय्वी पर हमारे दिन छाया की नाई बीतते जाते हैं।
10. क्या वे लोग तुझ से शिझा की बातें न कहेंगे? क्या वे अपके मन से बात न निकालेंगे?
11. क्या कछार की घास पानी बिना बढ़ सकती है? क्या सरकणडा कीच बिना बढ़ता है?
12. चाहे वह हरी हो, और काटी भी न गई हो, तौभी वह और सब भांति की घास से पहिले ही सूख जाती है।
13. ईश्वर के सब बिसरानेवालोंकी गति ऐसी ही होती है और भक्तिहीन की आशा टूट जाती है।
14. उसकी आश का मूल कट जाता है; और जिसका वह भरोसा करता है, वह मकड़ी का जाला ठहराता है।
15. चाहे वह अपके घर पर टेक लगाए परन्तु वह न ठहरेगा; वह उसे दृढ़ता से यांभेगा परन्तु वह स्य्िर न रहेगा।
16. वह चूप पाकर हरा भरा हो जाता है, और उसकी डालियां बगीचे में चारोंओर फैलती हैं।
17. उसकी जड़ कंकरोंके ढेर में लिपक्की हुई रहती है, और वह पत्त्र के स्यान को देख लेता है।
18. परन्तु जब वह अपके स्यान पर से नाश किया जाए, तब वह स्यान उस से यह कहकर मुंह मोड़ लेगा कि मैं ने उसे कभी देखा ही नहीं।
19. देख, उसकी आनन्द भरी चाल यही है; फिर उसी मिट्टी में से दूसरे उगेंगे।
20. देख, ईश्वर न तो खरे मनुष्य को निकम्मा जानकर छोड़ देता है, और न बुराई करतेवालोंको संभालता है।
21. वह तो तुझे हंसमुख करेगा; और तुझ से जयजयकार कराएगा।
22. तेरे वैरी लज्जा का वस्त्र पहिनेंगे, और दुष्टोंका डेरा कहीं रहने न पाएगा।

Chapter 9

1. तब अय्यूब ने कहा,
2. मैं निश्चय जानता हूं, कि बात ऐसी ही है; परन्तु मनुष्य ईश्वर की दृष्टि में क्योंकर धमीं ठहर सकता है?
3. चाहे वह उस से मुक़द्दमा लड़ना भी चाहे तौभी मनुष्य हजार बातोंमें से एक का भी उत्तर न दे सकेगा।
4. वह बुद्धिमान और अति सामयीं है: उसके विरोध में हठ करके कौन कभी प्रबल हुआ है?
5. वह तो पर्वतोंको अचानक हटा देता है और उन्हें पता भी नहीं लगता, वह क्रोध में आकर उन्हें उलट पुलट कर देता है।
6. वह पृय्वी को हिलाकर उसके स्यान से अलग करता है, और उसके खम्भे कांपके लगते हैं।
7. उसकी आज्ञा बिना सूर्य उदय होता ही नहीं; और वह तारोंपर मुहर लगाता है;
8. वह आकाशमणडल को अकेला ही फैलाता है, और समुद्र की ऊंची ऊंची लहरोंपर चलता है;
9. वह सप्तषिर्, मृगशिरा और कचपचिया और दक्खिन के नझत्रोंका बनानेवाला है।
10. वह तो ऐसे बड़े कर्म करता है, जिनकी याह नहीं लगती; और इतने आश्चर्यकर्म करता है, जो गिने नहीं जा सकते।
11. देखो, वह मेरे साम्हने से होकर तो चलता है परन्तु मुझको नहीं दिखाई पड़ता; और आगे को बढ़ जाता है, परन्तु मुझे सूफ ही नहीं पड़ता है।
12. देखो, जब वह छीनने लगे, तब उसको कौन रोकेगा? कोन उस से कह सकता है कि तू यह क्या करता है?
13. ईश्वर अपना क्रोध ठंडा नहीं करता। अभिमानी के सहाथकोंको उसके पांव तले फुकना पड़ता है।
14. फिर मैं क्या हूं, जो उसे उत्तर दूं, और बातें छांट छांटकर उस से विवाद करूं?
15. चाहे मैं निदॉष भी होता परन्तु उसको उत्तर न दे सकता; मैं अपके मुद्दई से गिड़गिड़ाकर बिनती करता।
16. चाहे मेरे पुकारने से वह उत्तर भी देता, तौभी मैं इस बात की प्रतीति न करता, कि वह मेरी बात सुनता है।
17. वह तो आंधी चलाकर मुझे तोड़ डालता है, और बिना कारण मेरे चोट पर चोट लगाता है।
18. वह मुझे सांस भी लेने नहीं देता है, और मुझे कड़वाहट से भरता है।
19. जो सामर्य्य की चर्चा हो, तो देखो, वह बलवान है: और यदि न्याय की चर्चा हो, तो वह कहेगा मुझ से कौन मुक़द्दमा लड़ेगा?
20. चाहे मैं निदॉष ही क्योंन हूँ, परन्तु अपके ही मुंह से दोषी ठहरूंगा; खरा होने पर भी वह मुझे कुटिल ठहराएगा।
21. मैं खरा तो हूँ, परन्तु अपना भेद नहीं जानता; अपके जीवन से मुझे घृण आती है।
22. बात तो एक ही है, इस से मैं यह कहता हूँ कि ईश्वर खरे और दुष्ट दोनोंको नाश करता है।
23. जब लोग विपत्ति से अचानक मरने लगते हैं तब वह निदॉष लोगोंके जांचे जाने पर हंसता है।
24. देश दुष्टोंके हाथ में दिया गया है। वह उसके न्यायियोंकी आंखोंको मून्द देता है; इसका करनेवाला वही न हो तो कौन है?
25. मेरे दिन हरकारे से भी अधिक वेग से चले जाते हैं; वे भागे जाते हैं और उनको कल्याण कुछ भी दिखाई नहीं देता।
26. वे वेग चाल से नावोंकी नाई चले जाते हैं, वा अहेर पर फपटते हुए उक़ाब की नाई।
27. जो मैं कहूं, कि विलाप करना फूल जाऊंगा, और उदासी छोड़कर अपना मन प्रफुल्लित कर दूंगा,
28. तब मैं अपके सब दुखोंसे डरता हूँ। मैं तो जानता हूँ, कि तू मुझे निदॉष न ठहराएगा।
29. मैं तो दोषी ठहरूंगा; फिर व्यर्य क्योंपरिश्र्म करूं?
30. चाहे मैं हिम के जल में स्नान करूं, और अपके हाथ खार से निर्मल करूं,
31. तैभी तू मुझे गड़हे में डाल ही देगा, और मेरे वस्त्र भी मुझ से घिनाएंगे।
32. क्योंकि वह मेरे तुल्य मनुष्य नहीं है कि मैं उस से वादविवाद कर सकूं, और हम दोनोंएक दूसरे से मुक़द्दमा लड़ सकें।
33. हम दोनोंके बीच कोई बिचवई नहीं है, जो हम दोंनोंपर अपना हाथ रखे।
34. वह अपना सोंटा मुझ पर से दूर करे और उसकी भय देनेवाली बात मुझे न घबराए।
35. तब मैं उस से निडर होकर कुछ कह सकूंगा, क्योंकि मैं अपक्की दृष्टि में ऐसा नहीं हूँ।

Chapter 10

1. मेरा प्राण जीवित रहने से उकताता है; मैं स्वतंत्रता पूर्वक कुड़कुड़ाऊंगा; और मैं अपके मन की कड़वाहट के मारे बातें करूंगा।
2. मै ईश्वर से कहूंगा, मुझे दोषी न ठहरा; मुझे बता दे, कि तू किस कारण मूफ से मुक़द्दमा लड़ता है?
3. क्या तुझे अन्धेर करना, और दुष्टोंकी युक्ति को सुफल करके अपके हाथोंके बनाए हुए को निकम्मा जानना भला लगता है?
4. क्या तेरी देश्धारियोंकी सी बांखें है? और क्या तेरा देखना मनुष्य का सा है?
5. क्या तेरे दिन मनुष्य के दिन के समान हैं, वा तेरे वर्ष पुरुष के समयोंके तुल्य हैं,
6. कि तू मेरा अधर्म ढूंढ़ता, और मेरा पाप पूछता है?
7. तुझे तो मालूम ही है, कि मैं दुष्ट नहीं हूँ, और तेरे हाथ से कोई छुड़ानेवाला नहीं !
8. तू ने अपके हाथोंसे मुझे ठीक रचा है और जोड़कर बनाया है; तौभी मुझे नाश किए डालता है।
9. स्मरण कर, कि तू ने मुझ को गून्धी हुई मिट्टी की नाई बनाया, क्या तू मुझे फिर धूल में मिलाएगा?
10. क्या तू ने मुझे दूध की नाई उंडेलकर, और दही के समान जमाकर नहीं बनाया?
11. फिर तू ने मुझ पर चमड़ा और मांस चढ़ाया और हड्डियां और नसें गूंयकर मुझे बनाया है।
12. तू ने मुझे जीवन दिया, और मुझ पर करुणा की है; और तेरी चौकसी से मेरे प्राण की रझा हई है।
13. तौभी तू ने ऐसी बातोंको अपके मन में छिपा रखा; मैं तो जान गया, कि तू ने ऐसा ही करने को ठाना या।
14. जो मैं पाप करूं, तो तू उसका लेखा लेगा; और अधर्म करने पर मुझे निदॉष न ठहराएगा।
15. जो मैं दुष्टता करूं तो मुझ पर हाथ ! और जो मैं धमीं बनूं तौभी मैं सिर न उठाऊंगा, क्योंकि मैं अपमान से भरा हुआ हूं और अपके दु:ख पर ध्यान रखता हूँ।
16. और चाहे सिर उठाऊं तौभी तू सिंह की नाई मेरा अहेर करता है, और फिर मेरे विरुद्ध आश्चर्यकर्म करता है।
17. तू मेरे साम्हने अपके नथे नथे साझी ले आता है, और मुझ पर अपना क्रोध बढ़ाता है; और मुझ पर सेना पर सेना चढ़ाई करती है।
18. तू ने मुझे गर्भ से क्योंनिकाला? नहीं तो मैं वहीं प्राण छोड़ता, और कोई मुझे देखने भी न पाता।
19. मेरा होना न होने के समान होता, और पेट ही से क़ब्र को पहुंचाया जाता।
20. क्या मेरे दिन योड़े नहीं? मुझे छोड़ दे, और मेरी ओर से मुंह फेर ले, कि मेरा मन योड़ा शान्त हो जाए
21. इस से पहिले कि मैं वहां जाऊं, जहां से फिर न लौटूंगा, अर्यात्‌ अन्धिक्कारने और धोर अन्धकार के देश में, जहां अन्धकार ही अन्धकार है;
22. और मृत्यु के अन्धकार का देश जिस में सब कुछ गड़बड़ है; और जहां प्रकाश भी ऐसा है जैसा अन्धकार।

Chapter 11

1. तब नामाती सोपर ने कहा:
2. बहुत सी बातें जो कही गई हैं, क्या उनका उत्तर देना न चाहिथे? क्या बकवादी मनुष्य धमीं ठहराया जाए?
3. क्या तेरे बड़े बोल के कारण लोग चुप रहें? और जब तू ठट्ठा करता है, तो क्या कोई तुझे लज्जित न करे?
4. तू तो यह कहता है कि मेरा सिद्धान्त शुद्ध है और मैं ईश्वर की दृष्टि में पवित्र हूँ।
5. परन्तु भला हो, कि ईश्वर स्वयं बातें करें, और तेरे विरुद्ध मुंह खोले,
6. और तुझ पर बुद्धि की गुप्त बातें प्रगट करे, कि उनका मर्म तेरी बुद्धि से बढ़कर है। इसलिथे जान ले, कि ईश्वर तेरे अधर्म में से बहुत कुछ भूल जाता है।
7. क्या तू ईश्वर का गूढ़ भेद पा सकता है? और क्या तू सर्वशक्तिमान का मर्म पूरी रीति से चांच सकता है?
8. वह आकाश सा ऊंचा है; तू क्या कर सकता है? वह अधोलोक से गहिरा है, तू कहां समझ सकता है?
9. उसकी माप पृय्वी से भी लम्बी है और समुद्र से चौड़ी है।
10. जब ईश्वर बीच से गुजरकर बन्द कर दे और अदालत में बुलाए, तो कौन उसको रोक सकता है।
11. क्योंकि वह पाखणडी मनुष्योंका भेद जानता है, और अनर्य काम को बिना सोच विचार किए भी जान लेता है।
12. पनन्तु मनुष्य छूछा और निर्बुद्धि होता है; क्योंकि मनुष्य जन्म ही से जंगली गदहे के बच्चे के समान होता है।
13. यदि तू अपना मन शुद्ध करे, और ईश्वर की ओर अपके हाथ फैलाए,
14. और जो कोई अनर्य काम तुझ से होता हो उसे दूर करे, और अपके डेरोंमें कोई कुटिलता न रहने दे,
15. तब तो तू निश्चय अपना मुंह निष्कलंक दिखा सकेगा; और तू स्य्िर होकर कभी न डरेगा।
16. तब तू अपना दु:ख भूल जाएगा, तू उसे उस पानी के समान स्मरण करेगा जो बह गया हो।
17. और तेरा जीवन दोपहर से भी अधिक प्रकाशमान होगा; और चाहे अन्धेरा भी हो तौभी वह भोर सा हो जाएगा।
18. और तुझे आशा होगी, इस कारण तू निर्भय रहेगा; और अपके चारोंओर देख देखकर तू निर्भय विश्रम कर सकेगा।
19. और जब तू लेटेगा, तब कोई तुझे डराएगा नहीं; और बहुतेरे तुझे प्रसन्न करते का यत्न करेंगे।
20. परन्तु दुष्ट लोगोंकी आंखें रह जाएंगी, और उन्हें कोई शरुण स्यान न मिलेगा और उनकी आशा यही होगी कि प्राण निकल जाए।

Chapter 12

1. तब अय्यूब ने कहा;
2. नि:सन्देह मनुष्य तो तुम ही हो और जब तुम मरोगे तब बुद्धि भी जाती रहेगी।
3. परन्तु तुम्हारी नाई मुझ में भी समझ है, मैं तुम लोगोंसे कुछ तीचा नहीं हूँ कौन ऐसा है जो ऐसी बातें न जानता हो?
4. मैं ईश्वर से प्रार्यना करता या, और वह मेरी सुन दिया करता या; परन्तु अब मेरे पड़ोसी मुझ पर हंसते हैं; जो धमीं और खरा मनुष्य है, वह हंसी का कारण हो गया है।
5. दु:खी लोग तो सुखियोंकी समझ में तुच्छ जाने जाते हैं; और जिनके पांव फिसला चाहते हैं उनका अपमान अवश्य ही होता है।
6. डाकुओं के डेरे कुशल झेम से रहते हैं, और जो ईश्वर को क्रोध दिलाते हैं, वह बहुत ही निडर रहते हैं; और उनके हाथ में ईश्वर बहुत देता है।
7. पशुओं से तो पूछ और वे तुझे दिखाएंगे; और आकाश के पझियोंसे, और वे तुझे बता देंगे।
8. पृय्वी पर ध्यान दे, तब उस से तुझे शिझा मिलेगी; ओर समुद्र की मछलियां भी तुझ से वर्णन करेंगी।
9. कौन इन बातोंको नहीं जानता, कि यहोवा ही ने अपके हाथ से इस संसार को बनाया है।
10. उसके हाथ में एक एक जीवधारी का प्राण, और एक एक देहधारी मनुष्य की आत्मा भी रहती है।
11. जैसे जीभ से भोजन चखा जाता है, क्या वैसे ही कान से वचन नहीं परखे जाते?
12. बूढ़ां में बुद्धि पाई जाती है, और लम्बी आयुवालोंमें समझ होती तो है।
13. ईश्वर में पूरी बुद्धि और पराक्रम पाए जाते हैं; युक्ति और समझ उसी में हैं।
14. देखो, जिसको वह ढा दे, वह फिर बनाया नहीं जाता; जिस मनुष्य को वह बन्द करे, वह फिर खोला नहीं जाता।
15. देखो, जब वह वर्षा को रोक रखता है तो जल सूख जाता है; फिर जब वह जल छोड़ देता है तब पृय्वी उलट जाती है।
16. उस में सामर्य्य और खरी बुद्धि पाई जाती है; धोख देनेवाला और धोखा खानेवाला दोनोंउसी के हैं।
17. वह मंत्रियोंको लूटकर बन्धुआई में ले जाता, और न्यायियोंको मूर्ख बना देता है।
18. वह राजाओं का अधिक्कारने तोड़ देता है; और उनकी कमर पर बन्धन बन्धवाता है।
19. वह याजकोंको लूटकर बन्धुआई में ले जाता और सामयिर्योंको उलट देता है।
20. वह विश्वासयोग्य पुरुषोंसे बोलने की शक्ति और पुरनियोंसे विवेक की शक्ति हर लेता है।
21. वह हाकिमोंको अपमान से लादता, और बलवानोंके हाथ ढीले कर देता है।
22. वह अन्धिक्कारने की गहरी बातें प्रगट करता, और मृत्यु की छाया को भी प्रकाश में ले आता है।
23. वह जातियोंको बढ़ाता, और उनको नाश करता है; वह उनको फैलाता, और बन्धुआई में ले जाता है।
24. वह पृय्वी के मुख्य लोगोंकी बुद्धि उड़ा देता, और उनको निर्जन स्यानोंमें जहां रास्ता नहीं है, भटकाता है।
25. वे बिन उजियाले के अन्धेरे में टटोलते फिरते हैं; और वह उन्हें ऐसा बना देता है कि वे मतवाले की नाई डगमगाते हुए चलते हैं।

Chapter 13

1. सुनो, मैं यह सब कुछ अपक्की आंख से देख चुका, और अपके कान से सुन चुका, और समझ भी चुका हूँ।
2. जो कुछ तुम जानते हो वह मैं भी जानता हूँ; मैं तुम लोगोंसे कुछ कम नहीं हूँ।
3. मैं तो सर्वशक्तिमान से बातें करूंगा, और मेरी अभिलाषा ईश्वर से वादविवाद करने की है।
4. परन्तु तुम लोग फूठी बात के गढ़नेवाले हो; तुम सबके सब निकम्मे वैद्य हो।
5. भला होता, कि तुम बिलकुल चुप रहते, और इस से तुम बुद्धिमान ठहरते।
6. मेरा विवाद सुनो, और मेरी बहस की बातोंपर कान लगाओ।
7. क्या तुम ईश्वर के निमित्त टेढ़ी बातें कहोगे, और उसके पझ में कपट से बोलोगे?
8. क्या तुम उसका पझपात करोगे? और ईश्वर के लिथे मुकद्दमा चलाओगे।
9. क्या यह भला होगा, कि वह तुम को जांचे? क्या जैसा कोई मनुष्य को धोखा दे, वैसा ही तुम क्या उसको भी धेखा दोगे?
10. जो तुम छिपकर पझपात करो, तो वह निश्चय तुम को डांटेगा।
11. क्या तुम उसके माहात्म्य से भय न खाओगे? क्या उसका डर तुम्हारे मन में न समाएगा?
12. तुम्हारे स्मरणयोग्य नीतिवचन राख के समान हैं; तुम्हारे कोट मिट्टी ही के ठहरे हैं :
13. मुझ से बात करना छोड़ो, कि मैं भी कुछ कहने पाऊं; फिर मुझ पर जो चाहे वह आ पके।
14. मैं क्योंअपना मांस अपके दांतोंसे चबाऊं? और क्योंअपना प्राण हथेली पर रखूं?
15. वह मुझे घात करेगा, मुझे कुछ आशा नहीं; तौभी मैं अपक्की चाल चलन का पझ लूंगा।
16. और यह भी मेरे बचाव का कारण होगा, कि भक्तिहीन जन उसके साम्हने नहीं जा सकता।
17. चित्त लगाकर मेरी बात सुनो, और मेरी बिनती तुम्हारे कान में पके।
18. देखो, मैं ने अपके बहस की पूरी तैयारी की है; मुझे निश्चय है कि मैं निदॉष ठहरूंगा।
19. कौन है जो मुझ से मुकद्दमा लड़ सकेगा? ऐसा कोई पाया जाए, तो मैं चुप होकर प्राण छोडूंगा।
20. दो ही काम मुझ से न कर, तब मैं तुझ से नहीं छिपूंगा:
21. अपक्की ताड़ना मुझ से दूर कर ले, और अपके भय से मुझे भयभीत न कर।
22. तब तेरे बुलाने पर मैं बोलूंगा; नहीं तो मैं प्रश्न करूंगा, और तू मुझे उत्तर दे।
23. मुझ से कितने अधर्म के काम और पाप हुए हैं? मेरे अपराध और पाप मुझे जता दे।
24. तू किस कारण अपना मुंह फेर लेता है, और मुझे अपना शत्रु गिनता है?
25. क्या तू उड़ते हुए पत्ते को भी कंपाएगा? और सूखे डंठल के पीछे पकेगा?
26. तू मेरे लिथे कठिन दु:खोंकी आज्ञा देता है, और मेरी जवानी के अधर्म का फल मुझे भुगता देता है।
27. और मेरे पांवोंको काठ में ठोंकता, और मेरी सारी चाल चलन देखता रहता है; और मेरे पांवोंकी चारोंओर सीमा बान्ध लेता है।
28. और मैं सड़ी गली वस्तु के तुल्य हूं जो नाश हो जाती है, और कीड़ा खाए कपके के तुल्य हूँ।

Chapter 14

1. मनुष्य जो स्त्री से उत्मन्न होता है, वह थेड़े दिनोंका और दुख से भरा रहता है।
2. वह फूल की नाई खिलता, फिर तोड़ा जाता हे; वह छाया की रीति पर ढल जाता, और कहीं ठहरता नहीं।
3. फिर क्या तू ऐसे पर दृष्टि लगाता है? क्या तू मुझे अपके साय कचहरी में घसीटता है?
4. अशुद्ध वस्तु से शुद्ध वस्तु को कौन निकाल सकता है? कोई नहीं।
5. मनुष्य के दिन नियुक्त किए गए हैं, और उसके महीनोंकी गिनती तेरे पास लिखी है, और तू ने उसके लिथे ऐसा सिवाना बान्धा है जिसे वह पार नहीं कर सकता,
6. इस कारण उस से अपना मुंह फेर ले, कि वह आराम करे, जब तक कि वह मजदूर की नाई अपना दिन पूरा न कर ले।
7. वुझ की तो आशा रहती है, कि चाहे वह काट डाला भी जाए, तौभी फिर पनपेगा और उस से नर्म नर्म डालियां निकलती ही रहेंगी।
8. चाहे उसकी जड़ भूमि में पुरानी भी हो जाए, और उसका ठूंठ मिट्टी में सूख भी जाए,
9. तौभी वर्षा की गन्ध पाकर वह फिर पनपेगा, और पौधे की नाई उस से शाखाएं फूटेंगी।
10. परन्तु पुरुष मर जाता, और पड़ा रहता है; जब उसका प्राण छूट गया, तब वह कहां रहा?
11. जैसे नील नदी का जल घट जाता है, और जैसे महानद का जल सूखते सूखते सूख जाता है,
12. वैसे ही मनुष्य लेट जाता और फिर नहीं उठता; जब तक आकाश बना रहेगा तब तक वह न जागेगा, और न उसकी नींद टूटेगी।
13. भला होता कि तू मुझे अधोलोक में छिपा लेता, और जब तक तेरा कोप ठंढा न हो जाए तब तक मुझे छिपाए रखता, और मेरे लिथे समय नियुक्त करके फिर मेरी सुधि लेता।
14. यदि मनुष्य मर जाए तो क्या वह फिर जीवित होगा? जब तक मेरा छूटकारा न होता तब तक मैं अपक्की कठिन सेवा के सारे दिन आशा लगाए रहता।
15. तू मुझे बुलाता, और मैं बोलता; तुझे अपके हाथ के बनाए हुए काम की अभिलाषा होती।
16. परन्तु अब तू मेरे पग पग को गिनता है, क्या तू मेरे पाप की ताक में लगा नहीं रहता?
17. मेरे अपराध छाप लगी हुई यैली में हैं, और तू ने मेरे अधर्म को सी रखा है।
18. और निश्चय पहाड़ भी गिरते गिरते नाश हो जाता है, और चट्टान अपके स्यान से हट जाती है;
19. और पत्यर जल से घिस जाते हैं, और भूमि की धूलि उसकी बाढ़ से बहाई जाती है; उसी प्रकार तू मनुष्य की आशा को मिटा देता है।
20. तू सदा उस पर प्रबल होता, और वह जाता रहता है; तू उसका चिहरा बिगाड़कर उसे निकाल देता है।
21. उसके पुत्रोंकी बड़ाई होती है, और यह उसे नहीं सूफता; और उनकी घटी होती है, परन्तु वह उनका हाल नहीं जानता।
22. केवल अपके ही कारण उसकी देी को दु:ख होता है; और अपके ही कारण उसका प्राण अन्दर ही अन्दर शोकित रहता है।

Chapter 15

1. तब तेमानी एलीपज ने कहा,
2. क्या बुद्धिमान को उचित है कि अज्ञानता के साय उत्तर दे, वा उपके अन्त:करण को पूरबी पवन से भरे?
3. क्या वह निष्फल वचनोंसे, वा व्यर्य बातोंसे वादविवाद करे?
4. वरन तू भय मानना छोड़ देता, और ईश्वर का ध्यान करना औरोंसे छुड़ाता है।
5. तू अपके मुंह से अपना अधर्म प्रगट करता है, और धूर्त्त लोगोंके बोलने की रीति पर बोलता है।
6. मैं तो नहीं परन्तु तेरा मुंह ही तुझे दोषी ठहराता है; और तेरे ही वचन तेरे विरुद्ध साझी देते हैं।
7. क्या पहिला मतुष्य तू ही उत्पन्न हुआ? क्या तेरी उत्पत्ति पहाड़ोंसे भी पहिले हुई?
8. क्या तू ईश्वर की सभा में बैठा सुनता या? क्या बुद्धि का ठीका तू ही ने ले रखा है?
9. तू ऐसा क्या जानता है जिसे हम नहीं जानते? तुझ में ऐसी कौन सी समझ है जो हम में नहीं?
10. हम लोगोंमें तो पक्के बालवाले और अति पुरनिथे मनुष्य हैं, जो तेरे पिता से भी बहुत आयु के हैं।
11. ईश्वर की शान्तिदायक बातें, और जो वचन तेरे लिथे कोमल हैं, क्या थे तेरी दृष्टि में तुच्छ हैं?
12. तेरा मन क्योंतुझे खींच ले जाता है? और तू आंख से क्योंसैन करता है?
13. तू भी अपक्की आत्मा ईश्वर के विरुद्ध करता है, और अपके मुंह से व्यर्य बातें निकलने देता है।
14. मनुष्य है क्या कि वह निष्कलंक हो? और जो स्त्री से उत्पन्न हुआ वह है क्या कि निदॉष हो सके?
15. देख, वह अपके पवित्रोंपर भी विश्वास नहीं करता, और स्वर्ग भी उसकी दृष्टि में निर्मल नहीं है।
16. फिर मनुष्य अधिक घिनौना और मलीन है जो कुटिलता को पानी की नाई पीता है।
17. मैं तुझे समझा दूंगा, इसलिथे मेरी सुन ले, जो मैं ने देखा है, उसी का वर्णन मैं करता हूँ।
18. (वे ही बातें जो बुद्धिमानोंने अपके पुरखाओं से सुनकर बिना छिपाए बताया है।
19. केवल उन्हीं को देश दिया गया या, और उनके मध्य में कोई विदेशी आता जाता नहीं या।)
20. दुष्ट जन जीवन भर पीड़ा से तड़पता है, और बलात्कारी के वषॉं की गिनती ठहराई हुई है।
21. उसके कान में डरावना शब्द गूंजता रहता है, कुशल के समय भी नाशक उस पर आ पड़ता है।
22. उसे अन्धिक्कारने में से फिर निकलने की कुछ आशा नहीं होती, और तलवार उसकी घात में रहती है।
23. वह रोटी के लिथे मारा मारा फिरता है, कि कहां मिलेगी। उसे निश्चय रहता है, कि अन्धकार का दिन मेरे पास ही है।
24. संकट और दुर्घटना से असको डर लगता रहता है, ऐसे राजा की नाई जो युद्ध के लिथे तैयार हो, वे उस पर प्रबल होते हैं।
25. उस ने तो ईश्वर के विरुद्ध हाथ बढ़ाया है, और सर्वशक्तिमान के विरुद्ध वह ताल ठोंकता है,
26. और सिर उठाकर और अपक्की मोटी मोटी ढालें दिखाता हुआ घमणड से उस पर धावा करता है;
27. इसलिथे कि उसके मुंह पर चिकनाई छा गई है, और उसकी कमर में चक्कीं जमी है।
28. और वह उजाड़े हुए नगरोंमें बस गया है, और जो घर रहने योग्य नहीं, और खणडहर होने को छोड़े गए हैं, उन में बस गया है।
29. वह धनी न रहेगा, और न उसकी सम्पत्ति बनी रहेगी, और ऐसे लोगोंके खेत की उपज भूमि की ओर न भुकने पाएगी।
30. वह अन्धिक्कारने से कभी न निकलेगा, और उसकी डालियां आग की लपट से फुलस जाएंगी, और ईश्वर के मुंह की श्वास से वह उड़ जाएगा।
31. वह अपके को धोखा देकर व्यर्य बातोंका भरोसा न करे, क्योंकि उसका बदला धोखा ही होगा।
32. वह उसके नियत दिन से पहिले पूरा हो जाएगा; उसकी डालियां हरी न रहेंगी।
33. दाख की नाई उसके कच्चे फल फड़ जाएंगे, और उसके फूल जलपाई के वृझ के से गिरेंगे।
34. क्योंकि भक्तिहीन के परिवार से कुछ बन न पकेगा, और जो घूस लेते हैं, उनके तम्बू आग से जल जाएंगे।
35. उनके उपद्रव का पेट रहता, और अनर्य उत्पन्न होता है: और वे अपके अन्त:करण में छल की बातें गढ़ते हैं।

Chapter 16

1. तब अय्यूब ने कहा,
2. ऐसी बहुत सी बातें मैं सुन चुका हूँ, तुम सब के सब निकम्मे शान्तिदाता हो।
3. क्या व्यर्य बातोंका अन्त कभी होगा? तू कौन सी बात से फिड़ककर उत्तर देता।
4. जो तुम्हारी दशा मेरी सी होती, तो मैं भी तुम्हारी सी बातें कर सकता; मैं भी तुम्हारे विरुद्ध बातें जोड़ सकता, और तुम्हारे विरुद्ध सिर हिला सकता।
5. वरन मैं अपके वचनोंसे तुम को हियाव दिलाता, और बातोंसे शान्ति देकर तुम्हारा शोक घटा देता।
6. चाहे मैं बोलूं तौभी मेरा शोक न घटेगा, चाहे मैं चुप रहूं, तौभी मेरा दु:ख कुछ कम न होगा।
7. परन्तु अब उस ने पुफे उकता दिया है; उस ने मेरे सारे परिवार को उजाड़ डाला है।
8. और उस ने जो मेरे शरीर को सुखा डाला है, वह मेरे विरुद्ध साझी ठहरा है, और मेरा दुबलापन मेरे विरुद्ध खड़ा होकर मेरे साम्हने साझी देता है।
9. उस ने क्रोध में आकर मुझ को फाड़ा और मेरे पीछे पड़ा है; वह मेरे विरुद्ध दांत पीसता; और मेरा वैरी मुझ को आंखें दिखाता है।
10. अब लोग मुझ पर मुंह पसारते हैं, और मेरी नामधराई करके मेरे गाल पर यपेड़ा मारते, और मेरे विरुद्ध भीड़ लगाते हैं।
11. ईश्वर ने मुझे कुटिलोंके वश में कर दिया, और दुष्ट लोगोंके हाथ में फेंक दिया है।
12. मैं सुख से रहता या, और उस ने मुझे चूर चूर कर डाला; उस ने मेरी गर्दन पकड़कर मुझे टुकड़े टुकड़े कर दिया; फिर उस ने पुफे अपना निशाना बनाकर खड़ा किया है।
13. उसके तीर मेरे चारोंओर उड़ रहे हैं, वह निर्दय होकर मेरे गुदॉं को बेधता है, और मेरा मित्त भूमि पर बहाता है।
14. वह शूर की नाई मुझ पर धावा करके मुझे चोट पर चोट पहुंचाकर घायल करता है।
15. मैं ने अपक्की खाल पर टाट को सी लिया है, और अपना सींग मिट्टी में मैला कर दिया है।
16. रोते रोते मेरा मुंह सूज गया है, और मेरी आंखोंपर घोर अन्धकार छा गया है;
17. तौभी मुझ से कोई उपद्रव नहीं हुआ है, और मेरी प्रार्यना पवित्र है।
18. हे पृय्वी, तू मेरे लोहू को न ढांपना, और मेरी दोहाई कहीं न रुके।
19. अब भी स्वर्ग में मेरा साझी है, और मेरा गवाह ऊपर है।
20. मेरे मित्र मुझ से घृणा करते हैं, परन्तु मैं ईश्वर के साम्हने आंसू बहाता हूँ,
21. कि कोई ईश्वर के विरुद्ध सज्जन का, और आदमी का मुक़द्दमा उसके पड़ोसी के विरुद्ध लड़े।
22. क्योंकि योड़े ही वषॉं के बीतने पर मैं उस मार्ग से चला जाऊंगा, जिस से मैं फिर वापिस न लौटूंगा।

Chapter 17

1. मेरा प्राण नाश हुआ चाहता है, मेरे दिन पूरे हो चुके हैं; मेरे लिथे कब्र तैयार है।
2. निश्चय जो मेरे संग हैं वह ठट्ठा करनेवाले हैं, और उनका फगड़ा रगड़ा मुझे लगातार दिखाई देता है।
3. जमानत दे अपके और मेरे बीच में तू ही जामिन हो; कौन है जो मेरे हाथ पर हाथ मारे?
4. तू ने इनका मन समझने से रोका है, इस कारण तू इनको प्रबल न करेगा।
5. जो अपके मित्रोंको चुगली खाकर लूटा देता, उसके लड़कोंकी आंखें रह जाएंगी।
6. उस ने ऐसा किया कि सब लोग मेरी उपमा देते हैं; और लोग मेरे मुंह पर यूकते हैं।
7. खेद के मारे मेरी आंखोंमें घुंघलापन छा गया है, और मेरे सब अंग छाया की नाई हो गए हैं।
8. इसे देखकर सीधे लोग चकित होते हैं, और जो निदॉष हैं, वह भक्तिहीन के विरुद्ध उभरते हैं।
9. तौभी धमीं लोग अपना मार्ग पकड़े रहेंगे, और शुद्ध काम करनेवाले सामर्य्य पर सामर्य्य पाते जाएंगे।
10. तुम सब के सब मेरे पास आओ तो आओ, परन्तु मुझे तुम लोगोंमें एक भी बुद्धिमान न मिलेगा।
11. मेरे दिन तो बीत चुके, और मेरी मनसाएं मिट गई, और जो मेरे मन में या, वह नाश हुआ है।
12. वे रात को दिन ठहराते; वे कहते हैं, अन्धिक्कारने के निकट उजियाला है।
13. यदि मेरी आश यह हो कि अधोलोक मेरा धाम होगा, यदि मैं ने अन्धिक्कारने में अपना बिछौना बिछा लिया है,
14. यदि मैं ने सड़ाहट से कहा कि तू मेरा पिता है, और कीड़े से, कि तू मेरी मां, और मेरी बहिन है,
15. तो मेरी आशा कहां रही? और मेरी आशा किस के देखने में आएगी?
16. वह तो अधोलोक में उतर जाएगी, और उस समेत मुझे भी मिट्टी में विश्रम मिलेगा।

Chapter 18

1. तब शूही बिल्दद ने कहा,
2. तुम कब तक फन्दे लगा लगाकर वचन पकड़ते रहोगे? चित्त लगाओ, तब हम बोलेंगे।
3. हम लोग तुम्हारी दृष्टि में क्योंपशु के तुल्य समझे जाते, और अशुद्ध ठहरे हैं।
4. हे अपके को क्रोध में फाड़नेवाले क्या तेरे निमित्त पृय्वी उजड़ जाएगी, और चट्टान अपके स्यान से हट जाएगी?
5. तौभी दुष्टोंका दीपक बुफ जाएगा, और उसकी आग की लौ न चमकेगी।
6. उसके डेरे में का उजियाला अन्धेरा हो जाएगा, और उसके ऊपर का दिया बुफ जाएगा।
7. उसके बड़े बड़े फाल छोटे हो जाएंगे और वह अपक्की ही युक्ति के द्वारा गिरेगा।
8. वह अपना ही पांव जाल में फंसाएगा, वह फन्दोंपर चलता है।
9. उसकी एड़ी फन्दे में फंस जाएगी, और वह जाल में पकड़ा जाएगा।
10. फन्दे की रस्सियां उसके लिथे भूमि में, और जाल रास्ते में छिपा दिया गया है।
11. चारोंओर से डरावनी वस्तुएं उसे डराएंगी और उसके पीछे पड़कर उसको भगाएंगी।
12. उसका बल दु:ख से घट जाएगा, और विपत्ति उसके पास ही तैयार रहेगी।
13. वह उसके अंग को खा जाएगी, वरन काल का पहिलौठा उसके अंगोंको खा लेगा।
14. अपके जिस डेरे का भरोसा वह करता है, उस से वह छीन लिया जाएगा; और वह भयंकरता के राजा के पास पहुंचाया जाएगा।
15. जो उसके यहां का नहीं है वह उसके डेरे में वास करेगा, और उसके घर पर गन्धक छितराई जाएगी।
16. उसकी जड़ तो सूख जाएगी, और डालियां कट जाएंगी।
17. पृय्वी पर से उसका स्मरण मिट जाएगा, और बाज़ार में उसका नाम कभी न सुन पकेगा।
18. वह उजियाले से अन्धिक्कारने में ढकेल दिया जाएगा, और जगत में से भी भगाया जाएगा।
19. उसके कुटुम्बियोंमें उसके कोई पुत्रपौत्र न रहेगा, और जहां वह रहता या, वहां कोई बचा न रहेगा।
20. उसका दिन देखकर पूरबी लोग चकित होंगे, और पश्चिम के निवासियोंके रोएं खड़े हो जाएंगे।
21. नि:सन्देह कुटिल लोगोंके निवास ऐसे हो जाते हैं, और जिसको ईश्वर का ज्ञान नहीं रहता उसका स्यान ऐसा ही हो जाता है।

Chapter 19

1. तब अय्यूब ने कहा,
2. तुम कब तक मेरे प्राण को दु:ख देते रहोगे; और बातोंसे मुझे चूर चूर करोगे?
3. इन दसोंबार तुम लोग मेरी निन्दा ही करते रहे, तुम्हें लज्जा नहीं आती, कि तुम मेरे साय कठोरता का बरताव करते हो?
4. मान लिया कि मुझ से भूल हुई, तौभी वह भूल तो मेरे ही सिर पर रहेगी।
5. यदि तुम सचमुच मेरे विरुद्ध अपक्की बड़ाई करते हो और प्रमाण देकर मेरी तिन्दा करते हो,
6. तो यह जान लो कि ईश्वर ने मुझे गिरा दिया है, और मुझे अपके जाल में फंसा लिया है।
7. देखो, मैं उपद्रव ! उपद्रव ! योंचिल्लाता रहता हूँ, परन्तु कोई नहीं सुनता; मैं सहाथता के लिथे दोहाई देता रहता हूँ, परन्तु कोई न्याय नहीं करता।
8. उस ने मेरे मार्ग को ऐसा रूंधा है कि मैं आगे चल नहीं सकता, और मेरी डगरें अन्धेरी कर दी हैं।
9. मेरा विभव उस ने हर लिया है, और मेरे सिर पर से मुकुट उतार दिया है।
10. उस ने चारोंओर से मुझे तोड़ दिया, बस मैं जाता रहा, और मेरा आसरा उस ने वृझ की नाई उखाड़ डाला है।
11. उस ने मुझ पर अपना क्रोध भड़काया है और अपके शत्रुओं में मुझे गिनता है।
12. उसके दल इकट्ठे होकर मेरे विरुद्ध मोर्चा बान्धते हैं, और मेरे डेरे के चारोंओर छावनी डालते हैं।
13. उस ने मेरे भाइयोंको मुझ से दूर किया है, और जो मेरी जान पहचान के थे, वे बिलकुल अनजान हो गए हैं।
14. मेरे कुटुंबी मुझे छोड़ गए हैं, और जो मुझे जानते थे वह मुझे भूल गए हैं।
15. जो मेरे घर में रहा करते थे, वे, वरन मेरी दासियां भी मुझे अनजाना गिनने लगीं हैं; उनकी दृष्टि में मैं परदेशी हो गया हूँ।
16. जब मैं अपके दास को बुलाता हूँ, तब वह नहीं बोलता; मुझे उस से गिड़गिड़ाना पड़ता है।
17. मेरी सांस मेरी स्त्री को और मेरी गन्ध मेरे भाइयोंकी दृष्टि में घिनौनी लगती है।
18. लड़के भी मुझे तुच्छ जानते हैं; और जब मैं उठने लगता, तब वे मेरे विरुद्ध बोलते हैं।
19. मेरे सब परम मित्र मुझ से द्वेष रखते हैं, और जिन से मैं ने प्रेम किया सो पलटकर मेरे विरोधी हो गए हैं।
20. मेरी खाल और मांस मेरी हड्डियोंसे सट गए हैं, और मैं बाल बाल बच गया हूं।
21. हे मेरे मित्रो ! मुझ पर दया करो, दया, क्योंकि ईश्वर ने मुझे मारा है।
22. तुम ईश्वर की नाई क्योंमेरे पीछे पके हो? और मेरे मांस से क्योंतृप्त नहीं हुए?
23. भला होता, कि मेरी बातें लिखी जातीं; भला होता, कि वे पुस्तक में लिखी जातीं,
24. और लोहे की टांकी और शीशे से वे सदा के लिथे चट्टान पर खोदी जातीं।
25. मुझे तो निश्चय है, कि मेरा छुड़ानेवाला जीवित है, और वह अन्त में पृय्वी पर खड़ा होगा।
26. और अपक्की खाल के इस प्रकार नाश हो जाने के बाद भी, मैं शरीर में होकर ईश्वर का दर्शन पाऊंगा।
27. उसका दर्शन मैं आप अपक्की आंखोंसे अपके लिथे करूंगा, और न कोई दूसरा। यद्यपि मेरा ह्रृदय अन्दर ही अन्दर चूर चूर भी हो जाए,
28. तौभी मुझ में तो धर्म का मूल पाया जाता है ! और तुम जो कहते हो हम इसको क्योंकर सताएं !
29. तो तुम तलवार से डरो, क्योंकि जलजलाहट से तलवार का दणड मिलता है, जिस से तुम जान लो कि न्याय होता है।

Chapter 20

1. तब नामाती सोपर ने कहा,
2. मेरा जी चाहता है कि उत्तर दूं, और इसलिथे बोलने में फुतीं करता हूँ।
3. मैं ने ऐसी चितौनी सुनी जिस से मेरी निन्दा हुई, और मेरी आत्मा अपक्की समझ के अनुसार तुझे उत्तर देती है।
4. क्या तू यह नियम नहीं जानता जो प्राचीन और उस समय का है, जब मनुष्य पृय्वी पर बसाया गया,
5. कि दुष्टोंका ताली बजाना जल्दी बन्द हो जाता और भक्तिहीनोंका आनन्द पल भर का होता है?
6. चाहे ऐसे मनुष्य का माहात्म्य आकाश तक पहुंच जाए, और उसका सिर बादलोंतक पहुंचे,
7. तौभी वह अपक्की विष्ठा की नाई सदा के लिथे नाश हो जाएगा; और जो उसको देखते थे वे पूछेंगे कि वह कहां रहा?
8. वह स्वप्न की नाई लोप हो जाएगा और किसी को फिर न मिलेगा; रात में देखे हुए रूप की नाई वह रहने न पाएगा।
9. जिस ने उसको देखा हो फिर उसे न देखेगा, और अपके स्यान पर उसका कुछ पता न रहेगा।
10. उसके लड़केबाले कंगालोंसे भी बिनती करेंगे, और वह अपना छीना हुआ माल फेर देगा।
11. उसकी हड्डियोंमें जवानी का बल भरा हुआ है परन्तु वह उसी के साय मिट्टी में मिल जाएगा।
12. चाहे बुराई उसको मीठी लगे, और वह उसे अपक्की जीभ के नीचे छिपा रखे,
13. और वह उसे बचा रखे और न छोड़े, वरन उसे अपके तालू के बीच दबा रखे,
14. तौभी उसका भोजन उसके पेट में पलटेगा, वह उसके अन्दर नाग का सा विष बन जाएगा।
15. उस ने जो धन निगल लिया है उसे वह फिर उगल देगा; ईश्वर उसे उसके पेट में से निकाल देगा।
16. वह नागोंका विष चूस लेगा, वह करैत के डसने से मर जाएगा।
17. वह नदियोंअर्यात्‌ मधु और दही की नदियोंको देखने न पाएगा।
18. जिसके लिथे उस ने परिश्र्म किया, उसको उसे लौटा देना पकेगा, और वह उसे निगलने न पाएगा; उसकी मोल ली हुई वस्तुओं से जितना आनन्द होना चाहिथे, उतना तो उसे न मिलेगा।
19. क्योंकि उस ने कंगालोंको पीसकर छोड़ दिया, उस ने घर को छीन लिया, उसको वह बढ़ाने न पाएगा।
20. लालसा के मारे उसको कभी शान्ति नहीं मिलती यी, इसलिथे वह अपक्की कोई मनभावनी वस्तु बचा न सकेगा।
21. कोई वस्तु उसका कौर बिना हुए न बचक्की यी; इसलिथे उसका कुशल बना न रहेगा
22. पूरी सम्पत्ति रहते भी वह सकेती में पकेगा; तब सब दु:खियोंके हाथ उस पर उठेंगे।
23. ऐसा होगा, कि उसका पेट भरने के लिथे ईश्वर अपना क्रोध उस पर भड़काएगा, और रोटी खाने के समय वह उस पर पकेगा।
24. वह लोहे के हयियार से भागेगा, और पीतल के धनुष से मारा जाएगा।
25. वह उस तीर को खींचकर अपके पेट से निकालेगा, उसकी चमकीली नोंक उसके पित्ते से होकर निकलेगी, भय उस में समाएगा।
26. उसके गड़े हुए धन पर घोर अन्धकार छा जाएगा। वह ऐसी आग से भस्म होगा, जो मनुष्य की फूंकी हुई न हो; और उसी से उसके डेरे में जो बचा हो वह भी भस्म हो जाएगा।
27. आकाश उसका अयर्म प्रगट करेगा, और पृय्वी उसके विरुद्ध खड़ी होगी।
28. उसके घर की बढ़ती जाती रहेगी, वह उसके क्रोध के दिन बह जाएगी।
29. परमेश्वर की ओर से दुष्ट मनुष्य का अंश, और उसके लिथे ईश्वर का ठहराया हुआ भाग यही है।

Chapter 21

1. तब अय्यूब ने कहा,
2. चित्त लगाकर मेरी बात सुनो; और तुम्हारी शान्ति यही ठहरे।
3. मेरी कुछ तो सहो, कि मैं भी बातें करूं; और जब मैं बातें कर चुकूं, तब पीछे ठट्ठा करना।
4. क्या मैं किसी मनुष्य की दोहाई देता हूँ? फिर मैं अधीर क्योंन होऊं?
5. मेरी ओर चित्त लगाकर चकित हो, और अपक्की अपक्की उंगली दांत तले दबाओ।
6. जब मैं स्मरण करता तब मैं घबरा जाता हूँ, और मेरी देह में कंपकंपी लगती है।
7. क्या कारण है कि दुष्ट लोग जीवित रहते हैं, वरन बूढ़े भी हो जाते, और उनका धन बढ़ता जाता है?
8. उनकी सन्तान उनके संग, और उनके बालबच्चे उनकी आंखोंके साम्हने बने रहते हैं।
9. उनके घर में भयरहित कुशल रहता है, और ईश्वर की छड़ी उन पर नहीं पड़ती।
10. उनका सांड़ गाभिन करता और चूकता नहीं, उनकी गाथें बियाती हैं और बच्चा कभी नहीं गिरातीं।
11. वे अपके लड़कोंको फुणड के फुणड बाहर जाने देते हैं, और उनके बच्चे नाचते हैं।
12. वे डफ और वीणा बजाते हुए गाते, और बांसुरी के शब्द से आनन्दित होते हैं।
13. वे अपके दिन सुख से बिताते, और पल भर ही में अधोलोक में उतर जाते हैं।
14. तौभी वे ईश्वर से कहते थे, कि हम से दूर हो ! तेरी गति जानने की हम को इच्छा नहीं रहती।
15. सर्वशक्तिमान क्या है, कि हम उसकी सेवा करें? और जो हम उस से बिनती भी करें तो हमें क्या लाभ होगा?
16. देखो, उनका कुशल उनके हाथ में नहीं रहती, दुष्ट लोगोंका विचार मुझ से दूर रहे।
17. कितनी बार दुष्टोंका दीपक बुफ जाता है, और उन पर विपत्ति आ पड़ती है; और ईश्वर क्रोध करके उनके बांट में शोक देता है,
18. और वे वायु से उड़ाए हुए भूसे की, और बवणडर से उड़ाई हुई भूसी की नाई होते हैं।
19. ईश्वर उसके अधर्म का दणड उसके लड़केबालोंके लिथे रख छोड़ता है, वह उसका बदला उसी को दे, ताकि वह जान ले।
20. दुष्ट अपना नाश अपक्की ही आंखोंसे देखे, और सर्वशक्तिमान की जलजलाहट में से आप पी ले।
21. क्योंकि जब उसके महीनोंकी गिनती कट चुकी, तो अपके बादवाले घराने से उसका क्या काम रहा।
22. क्या ईश्वर को कोई ज्ञान सिखाएगा? वह तो ऊंचे पद पर रहनेवालोंका भी न्याय करता है।
23. कोई तो अपके पूरे बल में बड़े चैन और सुख से रहता हुआ मर जाता है।
24. उसकी दोहनियां दूध से और उसकी हड्डियां गूदे से भरी रहती हैं।
25. और कोई अपके जीव में कुढ़ कुढ़कर बिना सुख भोगे मर जाता है।
26. वे दोनोंबराबर मिट्टी में मिल जाते हैं, और कीड़े उन्हें ढांक लेते हैं।
27. देखो, मैं तुम्हारी कल्पनाएं जानता हूँ, और उन युक्तियोंको भी, जो तुम मेरे विषय में अन्याय से करते हो।
28. तुम कहते तो हो कि रईस का घर कहां रहा? दुष्टोंके निवास के डेरे कहां रहे?
29. परन्तु क्या तुम ने बटोहियोंसे कभी नहीं पूछा? क्या तुम उनके इस विषय के प्रमाणोंसे अनजान हो,
30. कि विपत्ति के दिन के लिथे दुर्जन रखा जाता है; और महाप्रलय के समय के लिथे ऐसे लोग बचाए जाते हैं?
31. उसकी चाल उसके मुंह पर कौन कहेगा? और उस ने जो किया है, उसका पलटा कौन देगा?
32. तौभी वह क़ब्र को पहुंचाया जाता है, और लोग उस क़ब्र की रखवाली रिते रहते हैं।
33. नाले के ढेले उसको सुखदायक लगते हैं; और जैसे पूर्वकाल के लोग अनगिनित जा चुके, वैसे ही सब मनुष्य उसके बाद भी चले जाएंगे।
34. तुम्हारे उत्तरोंमें तो फूठ ही पाया जाता है, इसलिथे तुम क्योंमुझे व्यर्य शान्ति देते हो?

Chapter 22

1. तब तेमानी एलीपज ने कहा,
2. क्या पुरुष से ईश्वर को लाभ पहुंच सकता है? जो बुद्धिमान है, वह अपके ही लाभ का कारण होता है।
3. क्या तेरे धमीं होने से सर्वशक्तिमान सुख पा सकता है? तेरी चाल की खराई से क्या उसे कुछ लाभ हो सकता है?
4. वह तो तुझे डांटता है, और तुझ से मुकद्दमा लड़ता है, तो क्या इस दशा में तेरी भक्ति हो सकती है?
5. क्या तेरी बुराई बहुत नहीं? तेरे अधर्म के कामोंका कुछ अन्त नहीं।
6. तू ने तो अपके भाई का बन्धक अकारण रख लिया है, और नंगे के वस्त्र उतार लिथे हैं।
7. यके हुए को तू ने पानी न पिलाया, और भूखे को रोटी देने से इनकार किया।
8. जो बलवान या उसी को भूमि मिली, और जिस पुरुष की प्रतिष्ठा हुई यी, वही उस में बस गया।
9. तू ने विधवाओं को छूछे हाथ लौटा दिया। और अनायोंकी बाहें तोड़ डाली गई।
10. इस कारण तेरे चारोंओर फन्दे लगे हैं, और अचानक डर के मारे तू घगरा रहा है।
11. क्या तू अन्धिक्कारने को नहीं देखता, और उस बाढ़ को जिस में तू डूब रहा है?
12. क्या ईश्वर स्वर्ग के ऊंचे स्यान में नहीं है? ऊंचे से ऊंचे तारोंको देख कि वे कितने ऊंचे हैं।।
13. फिर तू कहता है कि ईश्वर क्या जानता है? क्या वह घोर अन्धकार की आड़ में होकर न्याय करेगा?
14. काली घटाओं से वह ऐसा छिपा रहता है कि वह कुछ नहीं देख सकता, वह तो आकाशमणडल ही के ऊपर चलता फिरता है।
15. क्या तू उस पुराने रास्ते को पकड़े रहेगा, जिस पर वे अनर्य करनेवाले चलते हैं?
16. वे अपके समय से पहले उठा लिए गए और उनके घर की नेव नदी बहा ले गई।
17. उन्होंने ईश्वर से कहा या, हम से दूर हो जा; और यह कि सर्वशक्तिमान हमारा क्या कर सकता है?
18. तौभी उस ने उनके घर अच्छे अच्छे पदायॉंसे भर दिए-- परन्तु दुष्ट लोगोंका विचार मुझ से दूर रहे।
19. धमीं लेग देखकर आनन्दित होते हैं; और निदॉष लोग उनकी हंसी करते हैं, कि
20. जो हमारे विरुद्ध उठे थे, नि:सन्देह मिट गए और उनका बड़ा धन आग का कौर हो गया है।
21. उस से मेलमिलाप कर तब तुझे शान्ति मिलेगी; और इस से तेरी भलाई होगी।
22. उसके मुंह से शिझा सुन ले, और उसके वचन अपके मन में रख।
23. यदि तू सर्वशक्तिमान की ओर फिरके समीप जाए, और अपके डेरे से कुटिल काम दूर करे, तो तू बन जाएगा।
24. तू अपक्की अनमोल वस्तुओं को धूलि पर, वरन ओपीर का कुन्दन भी नालोंके पत्यरोंमें डाल दे,
25. तब सर्वशक्तिमान आप तेरी अनमोल वस्तु और तेरे लिथे चमकीली चान्दी होगा।
26. तब तू सर्वशक्तिमान से सुख पाएगा, और ईश्वर की ओर अपना मुंह बेखटके उठा सकेगा।
27. और तू उस से प्रार्यना करेगा, और वह तेरी सुनेगा; और तू अपक्की मन्नतोंको पूरी करेगा।
28. जो बात तू ठाने वह तुझ से बन भी पकेगी, और तेरे मागॉं पर प्रकाश रहेगा।
29. चाहे दुर्भाग्य हो तौभी तू कहेगा कि सुभाग्य होगा, क्योंकि वह नम्र मनुष्य को बचाता है।
30. वरन जो निदॉष न हो उसको भी वह बचाता है; तेरे शुद्ध कामोंके कारण तू छुड़ाया जाएगा।

Chapter 23

1. तब अय्यूब ने कहा,
2. मेरी कुड़कुड़ाहट अब भी नहीं रुक सकती, मेरी मार मेरे कराहने से भारी है।
3. भला होता, कि मैं जानता कि वह कहां मिल सकता है, तब मैं उसके विराजने के स्यान तक जा सकता !
4. मैं उसके साम्हने अपना मुक़द्दमा पेश करता, और बहुत से प्रमाण देता।
5. मैं जान लेता कि वह मुझ से उत्तर में क्या कह सकता है, और जो कुछ वह मुझ से कहता वह मैं समझ लेता।
6. क्या वह अपना बड़ा बल दिखाकर मुझ से मुक़द्दमा लड़ता? नहीं, वह मुझ पर ध्यान देता।
7. सज्जन उस से विवाद कर सकते, और इस रीति मैं अपके न्यायी के हाथ से सदा के लिथे छूट जाता।
8. देखो, मैं आगे जाता हूँ परन्तु वह नहीं मिलता; मैं पीछे हटता हूँ, परन्तु वह दिखाई नहीं पड़ता;
9. जब वह बाई ओर काम करता है तब वह मुझे दिखाई नहीं देता; वह तो दहिनी ओर ऐसा छिप जाता है, कि मुझे वह दिखाई ही नहीं पड़ता।
10. परन्तु वह जानता है, कि मैं कैसी चाल चला हूँ; और जब वह मुझे ता लेगा तब मैं सोने के समान निकलूंगा।
11. मेरे पैर उसके मागॉं में स्यिर रहे; और मैं उसी का मार्ग बिना मुड़े यामे रहा।
12. उसकी आज्ञा का पालन करने से मैं न हटा, और मैं ने उसके वचन अपक्की इच्छा से कहीं अधिक काम के जानकर सुरझित रखे।
13. परन्तु वह एक ही बात पर अड़ा रहता है, और कौन उसको उस से फिरा सकता है? जो कुछ उसका जी चाहता है वही वह करता है।
14. जो कुछ मेरे लिथे उस ने ठाना है, उसी को वह पूरा करता है; और उसके मन में ऐसी ऐसी बहुत सी बातें हैं।
15. इस कारण मैं उसके सम्मुख घबरा जाता हूँ; जब मैं सोचता हूँ तब उस से यरयरा उठता हूँ।
16. क्योंकि मेरा मन ईश्वर ही ने कच्चा कर दिया, और सर्वशक्तिमान ही ने मुझ को असमंजस में डाल दिया है।
17. इसलिथे कि मैं इस अन्धयारे से पहिले काट डाला न गया, और उस ने घोर अन्धकार को मेरे साम्हने से न छिपाया।

Chapter 24

1. सर्वशक्तिमान ने समय क्योंनहीं ठहराया, और जो लोग उसका ज्ञान रखते हैं वे उसके दिन क्योंदेखने नहीं पाते?
2. कुछ लोग भूमि की सीमा को बढ़ाते, और भेड़ बकरियां छीनकर चराते हैं।
3. वे अनायोंका गदहा हांक ले जाते, और विधवा का बैल कन्धक कर रखते हैं।
4. वे दरिद्र लोगोंको मार्ग से हटा देते, और देश के दीनोंको इकट्ठे छिपना पड़ता है।
5. देखो, वे जंगली गदहोंकी नाई अपके काम को और कुछ भोजन यत्न से ढूंढ़ने को निकल जाते हैं; उनके लड़केबालोंका भोजन उनको जंगल से मिलता है।
6. उनको खेत में चारा काटना, और दुष्टोंकी बची बचाई दाख बटोरना पड़ता है।
7. रात को उन्हें बिना वस्त्र नंगे पके रहना और जाड़े के समय बिना ओढ़े पके रहना पड़ता है।
8. वे पहाड़ोंपर की फडिय़ोंसे भीगे रहते, और शरण न पाकर चट्टान से लिपट जाते हैं।
9. कुछ लोग अनाय बालक को मा की छाती पर से छीन लेते हैं, और दीन लोगोंसे बन्धक लेते हैं।
10. जिस से वे बिना वस्त्र नंगे फिरते हैं; और भूख के मारे, पूलियां ढोते हैं।
11. वे उनकी भीतोंके भीतर तेल पेरते और उनके कुणडोंमें दाख रौंदते हुए भी प्यासे रहते हैं।
12. वे बड़े नगर में कराहते हैं, और घायल किए हुओं का जी दोहाई देता है; परन्तु ईश्वर मूर्खता का हिसाब नहीं लेता।
13. फिर कुछ लोग उजियाले से बैर रखते, वे उसके मागॉं को नहीं पहचानते, और न उसके मागॉं में बने रहते हैं।
14. खूनी, पह फटते ही उठकर दीन दरिद्र मनुष्य को घात करता, और रात को चोर बन जाता है।
15. व्यभिचारी यह सोचकर कि कोई मुझ को देखने न पाए, दिन डूबने की राह देखता रहता है, और वह अपना मुंह छिपाए भी रखता है।
16. वे अन्धिक्कारने के समय घरोंमें सेंध मारते और दिन को छिपे रहते हैं; वे उजियाले को जानते भी नहीं।
17. इसलिथे उन सभोंको भोर का प्रकाश घोर अन्धकार सा जान पड़ता है, क्योंकि घोर अन्धकार का भय वे जानते हैं।
18. वे जल के ऊपर हलकी वस्तु के सरीखे हैं, उनके भाग को पृय्वी के रहनेवाले कोसते हैं, और वे अपक्की दाख की बारियोंमें लौटने नहीं पाते।
19. जैसे सूखे और घाम से हिम का जल सूख जाता है वैसे ही पापी लोग अधोलोक में सूख जाते हैं।
20. माता भी उसको भूल जाती, और कीड़े उसे चूसते हें, भवीष्य में उसका स्मरण न रहेगा; इस रीति टेढ़ा काम करनेवाला वृझ की राई कट जाता है।
21. वह बांफ स्त्री को जो कभी नहीं जनी लूटता, और विधवा से भलाई करना नहीं चाहता है।
22. बलात्कारियोंको भी ईश्वर अपक्की शक्ति से खींच लेता है, जो जीवित रहने की आशा नहीं रखता, वह भी फिर उठ बैठता है।
23. उन्हें ऐसे बेखटके कर देता है, कि वे सम्भले रहते हैं; उौर उसकी कृपादृष्टि उनकी चाल पर लगी रहती है।
24. वे बढ़ते हैं, तब योड़ी बेर में जाते रहते हैं, वे दबाए जाते और सभोंकी नाई रख लिथे जाते हैं, और अनाज की बाल की नाई काटे जाते हैं।
25. क्या यह सब सच नहीं ! कौन मुझे फुठलाएगा? कौन मेरी बातें निकम्मी ठहराएगा?

Chapter 25

1. तब शूही बिल्दद ने कहा,
2. प्रभुता करना और डराना यह उसी का काम है; वह अपके ऊंचे ऊंचे स्यानोंमें शान्ति रखता है।
3. क्या उसकी सेनाओं की गिनती हो सकती? और कौन है जिस पर उसका प्रकाश नहीं पड़ता?
4. फिर मनुष्य ईश्वर की दृष्टि में धमीं क्योंकर ठहर सकता है? और जो स्त्री से उत्पन्न हुआ है वह क्योंकर निर्मल हो सकता है?
5. देख, उसकी दृष्टि में चन्द्रमा भी अन्धेरा ठहरता, और तारे भी निर्मल नहीं ठहरते।
6. फिर मनुष्य की क्या गिनती जो कीड़ा है, और आदमी कहां रहा जो केंचुआ है !

Chapter 26

1. तब अय्यूब ने कहा,
2. निर्बल जन की तू ने क्या ही बड़ी सहाथता की, और जिसकी बांह में सामर्य्य नहीं, उसको तू ने कैसे सम्भाला है?
3. निर्बुद्धि मनुष्य को तू ने क्या ही अच्छी सम्मति दी, और अपक्की खरी बुद्धि कैसी भली भांति प्रगट की है?
4. तू ने किसके हित के लिथे बातें कही? और किसके मन की बातें तेरे मुंह से निकलीं?
5. बहुत दिन के मरे हुए लोग भी जलनिधि और उसके निवासियोंके तले तड़पके हैं।
6. अधोलोक उसके साम्हने उधड़ा रहता है, और विनाश का स्यान ढंप नहीं सकता।
7. वह उत्तर दिशा को निराधार फैलाए रहता है, और बिना अेक पृय्वी को लटकाए रखता है।
8. वह जल को अपक्की काली घटाओं में बान्ध रखता, और बादल उसके बोफ से नहीं फटता।
9. वह अपके सिंहासन के साम्हने बादल फैलाकर उसको छिपाए रखता है।
10. उजियाले और अन्धिक्कारने के बीच जहां सिवाना बंधा है, वहां तक उस ने जलनिधि का सिवाना ठहरा रखा है।
11. उसकी घुड़की से आकाश के खम्भे यरयराकर चकित होते हैं।
12. वह अपके बल से समुद्र को उछालता, और अपक्की बुद्धि से घपणड को छेद देता है।
13. उसकी आत्मा से आकाशमणडल स्वच्छ हो जाता है, वह अपके हाथ से वेग भागनेवाले नाग को मार देता है।
14. देखो, थे तो उसकी गति के किनारे ही हैं; और उसकी आहट फुसफुसाहट ही सी तो सुन पड़ती है, फिर उसके पराक्रम के गरजने का भेद कौन समझ सकता है?

Chapter 27

1. अय्यूब ने और भी अपक्की गूढ़ बात उठाई और कहा,
2. मैं ईश्वर के जीवन की शपय खाता हूँ जिस ने मेरा न्याय बिगाड़ दिया, अर्यात्‌ उस सर्वशक्तिमान के जीवन की जिस ने मेरा प्राण कड़ुआ कर दिया।
3. क्योंकि अब तक मेरी सांस बराबर आती है, और ईश्वर का आत्मा मेरे नयुनोंमें बना है।
4. मैं यह कहता हूँ कि मेरे मुंह से कोई कुटिल बात न निकलेगी, और न मैं कपट की बातें बोलूंगा।
5. ईश्वर न करे कि मैं तुम लोगोंको सच्चा ठहराऊं, जब तक मेरा प्राण न छूटे तब तक मैं अपक्की खराई से न हटूंगा।
6. मैं अपना धर्म पकड़े हुए हूँ और उसको हाथ से जाने न दूंगा; क्योंकि मेरा मन जीवन भर मुझे दोषी नहीं ठहराएगा।
7. मेरा शत्रु दुष्टोंके समान, और जो मेरे विरुद्ध उठता है वह कुटिलोंके तुल्य ठहरे।
8. जब ईश्वर भक्तिहीन मनुष्य का प्राण ले ले, तब यद्यपि उस ने धन भी प्राप्त किया हो, तौभी उसकी क्या आशा रहेगी?
9. जब वह संकट में पके, तब क्या ईश्वर उसकी दोहाई सुनेगा?
10. क्या वह सर्वशक्तिमान में सुख पा सकेगा, और हर समय ईश्वर को पुकार सकेगा?
11. मैं तुम्हें ईश्वर के काम के विषय शिझा दूंगा, और सर्वशक्तिमान की बात मैं न छिपाऊंगा
12. देखो, तुम लोग सब के सब उसे स्वयं देख चुके हो, फिर तुम व्यर्य विचार क्योंपकड़े रहते हो?
13. दुष्ट पनुष्य का भाग ईश्वर की ओर से यह है, और बलात्कारियोंका अंश जो वे सर्वशक्तिमान के हाथ से पाते हैं, वह यह है, कि
14. चाहे उसके लड़केबाले गिनती में बढ़ भी जाएं, तौभी तलवार ही के लिथे बढ़ेंगे, और उसकी सन्तान पेट भर रोटी न खाने पाएगी।
15. उसके जो लोग बच जाएं वे मरकर क़ब्र को पहुंचेंगे; और उसके यहां की विधवाएं न रोएंगी।
16. चाहे वह रुपया धूलि के समान बटोर रखे और वस्त्र मिट्टी के किनकोंके तुल्य अनगिनित तैयार कराए,
17. वह उन्हें तैयार कराए तो सही, परन्तु धमीं उन्हें पहिन लेगा, और उसका रुपया निदॉष लोग आपस में बांटेंगे।
18. उस ने अपना घर कीड़े का सा बनाया, और खेत के रखवाले को फोपक्की की नाई बनाया।
19. वह धनी होकर लेट जाए परन्तु वह गाड़ा न जाएगा; आंख खोलते ही वह जाता रहेगा।
20. भय की धाराएं उसे बहा ले जाएंगी, रात को बवणडर उसको उड़ा ले जाएगा।
21. पुरवाई उसे ऐसा उड़ा ले जाएगी, और वह जाता रहेगा और उसको उसके स्यान से उड़ा ले जाएगी।
22. क्योंकि ईश्वर उस पर विपत्तियां बिना तरस खाए डाल देगा, उसके हाथ से वह भाग जाने चाहेगा। लोग उस पर ताली बजाएंगे,
23. और उस पर ऐसी सुसकारियां भरेंगे कि वह अपके स्यान पर न रह सकेगा।

Chapter 28

1. चांदी की खानि तो होती है, और सोने के लिथे भी स्यान होता है जहां लोग ताते हैं।
2. जोहा मिट्टी में से निकाला जाता और पत्यर पिघलाकर पीतल बनाया जाता है
3. मनुष्य अन्धिक्कारने को दूर कर, दूर दूर तक खोद खोद कर, अन्धिक्कारने ओर घोर अन्धकार में पत्यर ढूंढ़ते हैं।
4. जहां लोग रहते हैं वहां से दूर वे खानि खोदते हैं वहां पृय्वी पर चलनेवालोंके भूले बिसरे हुए वे मनुष्योंसे दूर लटके हुए फूलते रहते हैं।
5. यह भूमि जो है, इस से रोटी तो मिलती है, परन्तु उसके नीचे के स्यान मानो आग से उलट दिए जाते हैं।
6. उसके पत्य्र नीलमणि का स्यान हैं, और उसी में सोने की धूलि भी है।
7. उसका मार्ग कोई मांसाहारी पक्की नहीं जानता, और किसी गिद्ध की दृष्टि उस पर नहीं पक्की।
8. उस पर अभिमानी पशुओं ने पांव नहीं धरा, और न उस से होकर कोई सिंह कभी गया है।
9. वह चकमक के पत्यर पर हाथ लगाता, और पहाड़ोंको जड़ ही से उलट देता है।
10. वह चट्टान खोदकर नालियां बनाता, और उसकी आंखोंको हर एक अनमोल वस्तु दिखाई पड़ती है।
11. वह नदियोंको ऐसा रोक देता है, कि उन से एक बूंद भी पानी नहीं टपकता और जो कुछ छिपा है उसे वह उजियाले में निकालता है।
12. परन्तु बुद्धि कहां मिल सकती है? और समझ का स्यान कहां है?
13. उसका मोल मनुष्य को मालूम नहीं, जीवनलोक में वह कहीं नहीं मिलती !
14. अयाह सागर कहता है, वह मुझ में नहीं है, और समुद्र भी कहता है, वह मेरे पास नहीं है।
15. चोखे सोने से वह मोल लिया नहीं जाता। और न उसके दाम के लिथे चान्दी तौली जाती है।
16. न तो उसके साय ओपीर के कुन्दन की बराबरी हो सकती है; और न अनमोल सुलैमानी पत्यर वा नीलमणि की।
17. न सोना, न कांच उसके बराबर ठहर सकता है, कुन्दन के गहने के बदले भी वह नहीं मिलती।
18. मूंगे उौर स्फटिकमणि की उसके आगे क्या चर्चा ! बुद्धि का मोल माणिक से भी अधिक है।
19. कूश देश के पद्क़राग उसके तुल्य नहीं ठहर सकते; और न उस से चोखे कुन्दन की बराबरी हो सकती है।
20. फिर बुद्धि कहां मिल सकती है? और समझ का स्यान कहां?
21. वह सब प्राणियोंकी आंखोंसे छिपी है, और आकाश के पझियोंके देखने में नहीं आती।
22. विनाश ओर मृत्यु कहती हैं, कि हमने उसकी चर्चा सुनी है।
23. परन्तु परमेश्वर उसका मार्ग समझता है, और उसका स्यान उसको मालूम है।
24. वह तो पृय्वी की छोर तक ताकता रहता है, और सारे आकाशमणडल के तले देखता भालता है।
25. जब उस ने वायु का तौल ठहराया, और जल को नपुए में नापा,
26. और मेंह के लिथे विधि और गर्जन और बिजली के लिथे मार्ग ठहराया,
27. तब उस ने बुद्धि को देखकर उसका बखान भी किया, और उसको सिद्ध करके उसका पूरा भेद बूफ लिया।
28. तब उस न मनुष्य से कहा, देख, प्रभु का भय मानना यही बुद्धि है: और बुराई से दूर रहना यही समझ है।

Chapter 29

1. अय्यूब ने और भी अपक्की गूढ़ बात उठाई और कहा,
2. भला होता, कि मेरी दशा बीते हुए महीनोंकी सी होती, जिन दिनोंमें ईश्वर मेरी रझा करता या,
3. जब उसके दीपक का प्रकाश मेरे सिर पर रहता या, और उस से उजियाला पाकर मैं अन्धेरे में चलता या।
4. वे तो मेरी जवानी के दिन थे, जब ईश्वर की मित्रता मेरे डेरे पर प्रगट होती यी।
5. उस समय तक तो सर्वशक्तिमान मेरे संग रहता या, और मेरे लड़केबाले मेरे चारोंओर रहते थे।
6. तब मैं अपके पगोंको मलाई से धोता या और मेरे पास की चट्टानोंसे तेल की धाराएं बहा करती यीं।
7. जब जब मैं नगर के फाटक की ओर चलकर खुले स्यान में अपके बैठने का स्यान तैयार करता या,
8. तब तब जवान मुझे देखकर छिप जाते, और पुरनिथे उठकर खड़े हो जाते थे।
9. हाकिम लोग भी बोलने से रुक जाते, और हाथ से मुंह मूंदे रहते थे।
10. प्रधान लोग चुप रहते थे और उनकी जीभ तालू से सट जाती यी।
11. क्योंकि जब कोई मेरा समाचार सुनता, तब वह मुझे धन्य कहता या, और जब कोई मुझे देखता, तब मेरे विषय साझी देता या;
12. क्योंकि मैं दोहाई देनेवाले दीन जन को, और असहाथ अनाय को भी छुड़ाता या।
13. जो नाश होने पर या मुझे आशीर्वाद देता या, और मेरे कारण विधवा आनन्द के मारे गाती यी।
14. मैं धर्म को पहिने रहा, और वह मुझे ढांके रहा; मेरा न्याय का काम मेरे लिथे बागे और सुन्दर पगड़ी का काम देता या।
15. मैं अन्धोंके लिथे आंखें, और लंगड़ोंके लिथे पांव ठहरता या।
16. दरिद्र लोगोंका मैं पिता ठहरता या, और जो मेरी पहिचान का न या उसके मुक़द्दमे का हाल मैं पूछताछ करके जान लेता या।
17. मैं कुटिल मनुष्योंकी डाढ़ें तोड़ डालता, और उनका शिकार उनके मुंह से छीनकर बचा लेता या।
18. तब मैं सोचता या, कि मेरे दिन बालू के किनकोंके समान अनगिनत होंगे, और अपके ही बसेरे में मेरा प्राण छूटेगा।
19. मेरी जड़ जल की ओर फैली, और मेरी डाली पर ओस रात भर पक्की,
20. मेरी महिमा ज्योंकी त्योंबनी रहेगी, और मेरा धनुष मेरे हाथ में सदा नया होता जाएगा।
21. लोग मेरी ही ओर कान लगाकर ठहरे रहते थे और मेरी सम्मति सुनकर चुप रहते थे।
22. जब मैं बोल चुकता या, तब वे और कुछ न बोलते थे, मेरी बातें उन पर मेंह की ताई बरसा करती यीं।
23. जैसे लोग बरसात की वैसे ही मेरी भी बाट देखते थे; और जैसे बरसात के अन्त की वर्षा के लिथे वैसे ही वे मुंह पसारे रहते थे।
24. जब उनको कुछ आशा न रहती यी तब मैं हंसकर उनको प्रसन्न करता या; और कोई मेरे मुंह को बिगाड़ न सकता या।
25. मैं उनका मार्ग चुन लेता, और उन में मुख्य ठहरकर बैठा करता या, और जैसा सेना में राजा वा विलाप करनेवालोंके बीच शान्तिदाता, वैसा ही मैं रहता या।

Chapter 30

1. परन्तु अब जिनकी अवस्या मुझ से कम है, वे मेरी हंसी करते हैं, वे जिनके पिताओं को मैं अपक्की भेड़ बकरियोंके कुत्तोंके काम के योग्य भी न जानता या।
2. उनके भुजबल से मुझे क्या लाभ हो सकता या? उनका पौरुष तो जाता रहा।
3. वे दरिद्रता और काल के मारे दुबले पके हुए हैं, वे अन्धेरे और सुनसान स्यानोंमें सुखी धूल फांकते हैं।
4. वे फाड़ी के आसपास का लोनिया साग तोड़ लेते, और फाऊ की जड़ें खाते हैं।
5. वे मनुष्योंके बीच में से निकाले जाते हैं, उनके पीछे ऐसी पुकार होती है, जैसी जोर के पीछे।
6. डरावने नालोंमें, भूमि के बिलोंमें, और चट्टानोंमें, उन्हें रहना पड़ता है।
7. वे फाडिय़ोंके बीच रेंकते, और बिच्छू पौधोंके नीचे इकट्ठे पके रहते हैं।
8. वे मूढ़ोंऔर नीच लोगोंके वंश हैं जो मार मार के इस देश से निकाले गए थे।
9. ऐसे ही लोग अब मुझ पर लगते गीत गाते, और मुझ पर ताना मारते हैं।
10. वे मुझ से घिन खाकर दूर रहते, वा मेरे मुंह पर यूकने से भी नहीं डरते।
11. ईश्वर ने जो मेरी रस्सी खोलकर मुझे द:ख दिया है, इसलिथे वे मेरे साम्हने मुंह में लगाम नहीं रखते।
12. मेरी दहिनी अलंग पर बजारू लोग उठ खड़े होते हैं, वे मेरे पांव सरका देते हैं, और मेरे नाश के लिथे अपके उपाय बान्धते हैं।
13. जिनके कोई सहाथक नहीं, वे भी मेरे रास्तोंको बिगाड़ते, और मेरी विपत्ति को बढ़ाते हैं।
14. मानो बड़े नाके से घुसकर वे आ पड़ते हैं, और उजाड़ के बीच में होकर मुझ पर धावा करते हैं।
15. मुुफ में घबराहट छा गई है, और मेरा रईसपन मानो वायु से उड़ाया गया है, और मेरा कुशल बादल की नाई जाता रहा।
16. और अब मैं शोकसागर में डूबा जाता हूँ; दु:ख के दिनोंने मुझे जकड़ लिया है।
17. रात को मेरी हड्डियां मेरे अन्दर छिद जाती हैं और मेरी नसोंमें चैन नहीं पड़ती
18. मेरी बीमारी की बहुतायत से मेरे वस्त्र का रूप बदल गया है; वह मेरे कुत्तें के गले की नाई मुझ से लिपक्की हुई है।
19. उस ने मुझ को कीचड़ में फेंक दिया है, और मैं मिट्टी और राख के तुल्य हो गया हूँ।
20. मैं तेरी दोहाई देता हूँ, परन्तु तू नहीं सुनता; मैं खड़ा होता हूँ परन्तु तू मेरी ओर घूरने लगता है।
21. तू बदलकर मुझ पर कठोर हो गया है; और अपके बली हाथ से मुझे सताता हे।
22. तू मुझे वायु पर सवार करके उड़ाता है, और आंधी के पानी में मुझे गला देता है।
23. हां, मुझे निश्चय है, कि तू मुझे मृत्यु के वश में कर देगा, और उस घर में पहुंचाएगा, जो सब जीवित प्राणियोंके लिथे ठहराया गया है।
24. तौभी क्या कोई गिरते समय हाथ न बढ़ाएगा? और क्या कोई विपत्ति के समय दोहाई न देगा?
25. क्या मैं उसके लिथे रोता नहीं या, जिसके दुदिर्न आते थे? और क्या दरिद्र जन के कारण मैं प्राण में दुखित न होता या?
26. जब मैं कुशल का मार्ग जोहता या, तब विपत्ति आ पक्की; और जब मैं उजियाले का आसरा लगाए या, तब अन्धकार छा गया।
27. मेरी अन्तडिय़ां निरन्तर उबलती रहती हैं और आराम नहीं पातीं; मेरे दु:ख के दिन आ गए हैं।
28. मैं शोक का पहिरावा पहिने हुए मानो बिना सूर्य की गमीं के काला हो गया हूँ। और सभा में खड़ा होकर सहाथता के लिथे दोहाई देता हूँ।
29. मैं गीदड़ोंका भाई और शुतुर्मुगॉं का संगी हो गया हूँ।
30. मेरा चमड़ा काला होकर मुझ पर से गिरता जाता है, और तप के मारे मेरी हड्डियां जल गई हैं।
31. इस कारण मेरी वीणा से विलाप और मेरी बांसुरी से रोने की ध्वनि निकलती है।

Chapter 31

1. मैं ने अपक्की आंखोंके विषय वाचा बान्धी है, फिर मैं किसी कुंवारी पर क्योंकर आंखें लगाऊं?
2. क्योंकि ईश्वर स्वर्ग से कौन सा अंश और सर्वशक्तिमान ऊपर से कौन सी सम्पत्ति बांटता है?
3. क्या वह कुटिल मनुष्योंके लिथे विपत्ति और अनर्य काम करनेवालोंके लिथे सत्यानाश का कारण नहीं है?
4. क्या वह मेरी गति नहीं देखता और क्या वह मेरे पग पग नहीं गिनता?
5. यदि मैं व्यर्य चाल चालता हूं, वा कपट करने के लिथे मेरे पैर दौड़े हों;
6. (तो मैं धर्म के तराजू में तौला जाऊं, ताकि ईश्वर मेरी खराई को जान ले)।
7. यदि मेरे पग मार्ग से बहक गए हों, और मेरा मन मेरी आंखो की देखी चाल चला हो, वा मेरे हाथोंको कुछ कलंक लगा हो;
8. तो मैं बीज बोऊं, परन्तु दूसरा खाए; वरन मेरे खेत की उपज उखाड़ डाली जाए।
9. यदि मेरा ह्रृदय किसी स्त्री पर मोहित हो गया है, और मैं अपके पड़ोसी के द्वार पर घात में बैठा हूँ;
10. तो मेरी स्त्री दूसरे के लिथे पीसे, और पराए पुरुष उसको भ्रष्ट करें।
11. क्योंकि वह तो महापाप होता; और न्यायियोंसे दणड पाने के योग्य अधर्म का काम होता;
12. क्योंकि वह ऐसी आग है जो जलाकर भस्म कर देती है, और वह मेरी सारी उपज को जड़ से नाश कर देती है।
13. जब मेरे दास वा दासी ने मुझ से फगड़ा किया, तब यदि मैं ने उनका हक मार दिया हो;
14. तो जब ईश्वर उठ खड़ा होगा, तब मैं क्या करूंगा? और जब वह आएगा तब मैं क्या उत्तर दूंगा?
15. क्या वह उसका बनानेवाला नहीं जिस ने मुझे गर्भ में बनाया? क्या एक ही ने हम दोनोंकी सूरत गर्भ में न रची यी?
16. यदि मैं ने कंगालोंकी इच्छा पूरी न की हो, वा मेरे कारण विधवा की आंखें कभी रह गई हों,
17. वा मैं ने अपना टुकड़ा अकेला खाया हो, और उस में से अनाय न खाने पाए हों,
18. (परन्तु वह मेरे लड़कपन ही से मेरे साय इस प्रकार पला जिस प्रकार पिता के साय, और मैं जन्म ही से विधवा को पालता आया हूँ);
19. यदि मैं ने किसी को वस्त्रहीन मरते हुए देखा, वा किसी दरिद्र को जिसके पास ओढ़ने को न या
20. और उसको अपक्की भेड़ोंकी ऊन के कपके न दिए हों, और उस ने गर्म होकर मुझे आशीर्वाद न दिया हो;
21. वा यदि मैं ने फाटक में अपके सहाथक देखकर अनायोंके मारने को अपना हाथ उठाया हो,
22. तो मेरी बांह पखौड़े से उखड़कर गिर पके, और मेरी भुजा की हड्डी टूट जाए।
23. क्योंकि ईश्वर के प्रताप के कारण मैं ऐसा नहीं कर सकता या, क्योंकि उसकी ओर की विपत्ति के कारण मैं भयभीत होकर यरयराता या।
24. यदि मैं ने सोने का भरोसा किया होता, वा कुन्दन को अपना आसरा कहा होता,
25. वा अपके बहुत से धन वा अपक्की बड़ी कमाई के कारण आनन्द किया होता,
26. वा सूर्य को चमकते वा चन्द्रमा को महाशोभा से चलते हुए देखकर
27. मैं मन ही मन मोहित हो गया होता, और अपके मुंह से अपना हाथ चूम लिया होता;
28. तो यह भी न्यायियोंसे दणड पाने के योग्य अधर्म का काम होता; क्योंकि ऐसा करके मैं ने सर्वश्रेष्ट ईश्वर का इनकार किया होता।
29. यदि मैं अपके बैरी के नाश से आनन्दित होता, वा जब उस पर विपत्ति पक्की तब उस पर हंसा होता;
30. (परन्तु मैं ने न तो उसकी शाप देते हुए, और न उसके प्राणदणड की प्रार्यना करते हुए अपके मुंह से पाप किया है);
31. यदि मेरे डेरे के रहनेवालोंने यह न कहा होता, कि ऐसा कोई कहां मिलेगा, जो इसके यहां का मांस खाकर तृप्त न हुआ हो?
32. (परदेशी को सड़क पर टिकना न पड़ता या; मैं बटोही के लिथे अपना द्वार खुला रखता या);
33. यदि मैं ने आदम की नाई अपना अपराध छिपाकर अपके अधर्म को ढांप लिया हो,
34. इस कारण कि मैं बड़ी भीड़ से भय खाता या, वा कुलीनोंसे तुच्छ किए जाने से डर गया यहां तक कि मैं द्वार से बाहर न निकला---
35. भला होता कि मेरा कोई सुननेवाला होता ! (सर्वशक्तिमान अभी मेरा त्याय चुकाए ! देखो मेरा दस्तखत यही है)। भला होता कि जो शिकायतनामा मेरे मुद्दई ने लिखा है वह मेरे पास होता !
36. निश्चय मैं उसको अपके कन्धे पर उठाए फिरता; और सुन्दर पगड़ी जानकर अपके सिर में बान्धे रहता।
37. मैं उसको अपके पग पग का हिसाब देता; मैं उसके निकट प्रधान की नाई निडर जाता।
38. यदि मेरी भूमि मेरे विरुद्ध दोहाई देती हो, और उसकी रेघारियां मिलकर रोती हों;
39. यदि मैं ने अपक्की भूमि की उपज बिना मजूरी दिए खई, वा उसके मालिक का प्राण लिया हो;
40. तो गेहूं के बदले फड़बेड़ी, और जव के बदले जंगली घास उगें! अय्यूब के वचन पूरे हुए हैं।

Chapter 32

1. तब उन तीनोंपुरुषोंने यह देखकर कि अय्यूब अपक्की दृष्टि में निदॉष है उसको उत्तर देना छोड़ दिया।
2. और बूजी बारकेल का पुत्र एलीहू जो राम के कुल का या, उसका क्रोध भड़क उठा। अय्यूब पर उसका क्रोध इसलिथे भड़क उठा, कि उस ने परमेश्वर को नहीं, अपके ही को निदॉष ठहराया।
3. फिर अय्यूब के तीनोंमित्रोंके विरुद्ध भी उसका क्रोध इस कारण भड़का, कि वे अय्यूब को उत्तर न दे सके, तौभी उसको दोषी ठहराया।
4. एलीहू तो अपके को उन से छोटा जानकर अय्यूब की बातोंके अन्त की बाट जोहता रहा।
5. परन्तु जब एलीहू ने देखा कि थे तीनोंपुरुष कुछ उत्तर नहीं देते, तब उसका क्रोध भड़क उठा।
6. तब बूजी बारकेल का पुत्र एलीहू कहने लगा, कि मैं तो जवान हूँ, और तुम बहुत बूढ़े हो; इस कारण मैं रुका रहा, और अपना विचार तुम को बताने से डरता या।
7. मैं सोचता या, कि जो आयु में बड़े हैं वे ही बात करें, और जो बहुत वर्ष के हैं, वे ही बुद्धि सिखाएं।
8. परन्तु मनुष्य में आत्मा तो है ही, और सर्वशक्तिमान अपक्की दी हुई सांस से उन्हें समझने की शक्ति देता है।
9. जो बुद्धिमान हैं वे बड़े बड़े लोग ही नहीं और न्याय के समझनेवाले बूढ़े ही नहीं होते।
10. इसलिथे मैं कहता हूं, कि मेरी भी सुनो; मैं भी अपना विचार बताऊंगा।
11. मैं तो तुम्हारी बातें सुनने को ठहरा रहा, मैं तुम्हारे प्रमाण सुनने के लिथे ठहरा रहा; जब कि तुम कहने के लिथे शब्द ढूढ़ते रहे।
12. मैं चित्त लगाकर तुम्हारी सुनता रहा। परन्तु किसी ने अय्यूब के पझ का खणडन नहीं किया, और न उसकी बातोंका उत्तर दिया।
13. तुम लोग मत समझो कि हम को ऐसी बुद्धि मिली है, कि उसका खणडन मनुष्य नहीं ईश्वर ही कर सकता है।
14. जो बातें उस ने कहीं वह मेरे विरुद्ध तो नहीं कहीं, और न मैं तुम्हारी सी बातोंसे उसको उत्तर दूंगा।
15. वे विस्मित हुए, और फिर कुछ उत्तर नहीं दिया; उन्होंने बातें करना छोड़ दिया।
16. इसलिथे कि वे कुछ नहीं बोलते और चुपचाप खड़े हैं, क्या इस कारण मैं ठहरा रहूं?
17. परन्तु अब मैं भी कुछ कहूंगा मैं भी अपना विचार प्रगट करूंगा।
18. क्योंकि मेरे मन में बातें भरी हैं, और मेरी आत्मा मुझे उभार रही है।
19. मेरा मन उस दाखमधु के समान है, जो खोला न गया हो; वह नई कुप्पियोंकी नाई फटा चाहता है।
20. शान्ति पाने के लिथे मैं बोलूंगा; मैं मुंह खोलकर उत्तर दूंगा।
21. न मैं किसी आदमी का पझ करूंगा, और न मैं किसी मनुष्य को चापलूसी की पदवी दूंगा।
22. क्योंकि मुझे तो चापलूसी करना आता ही नहीं नहीं तो मेरा सिरजनहार झण भर में मुझे उठा लेता।

Chapter 33

1. तौभी हे अय्यूब ! मेरी बातें सुन ले, और मेरे सब वचनोंपर कान लगा।
2. मैं ने तो अपना मुंह खोला है, और मेरी जीभ मुंह में चुलबुला रही है।
3. मेरी बातें मेरे मन की सिधाई प्रगट करेंगी; जो ज्ञान मैं रखता हूं उसे खराई के साय कहूंगा।
4. मुझे ईश्वर की आत्मा ने बनाया है, और सर्वशक्तिमान की सांस से मुझे जीवन मिलता है।
5. यदि तू मुझे उत्तर दे सके, तो दे; मेरे साम्हने अपक्की बातें क्रम से रचकर खड़ा हो जा।
6. देख मैं ईश्वर के सन्मुख तेरे तुल्य हूँ; मैं भी मिट्टी का बना हुआ हूँ।
7. सुन, तुझे मेरे डर के मारे घबराना न पकेगा, और न तू मेरे बोफ से दबेगा।
8. नि:सन्देह तेरी ऐसी बात मेरे कानोंमें पक्की है और मैं ने तेरे वचन सुने हैं, कि
9. मैं तो पवित्र और निरपराध और निष्कलंक हूँ; और मुझ में अर्ध्म नहीं है।
10. देख, वह मुझ से फगड़ने के दांव ढूंढ़ता है, और मुझे अपना शत्रु समझता है;
11. वह मेरे दोनोंपांवोंको काठ में ठोंक देता है, और मेरी सारी चाल की देखभाल करता है।
12. देख, मैं तुझे उत्तर देता हूँ, इस बात में तू सच्चा नहीं है। क्योंकि ईश्वर मनुष्य से बड़ा है।
13. तू उस से क्योंफगड़ता है? क्योंकि वह अपक्की किसी बात का लेखा नहीं देता।
14. क्योंकि ईश्वर तो एक क्या वरन दो बार बोलता है, परन्तु लोग उस पर चित्त नहीं लगाते।
15. स्वप्न में, वा रात को दिए हुए दर्शन में, जब मनुष्य घोर निद्रा में पके रहते हैं, वा बिछौने पर सोते समय,
16. तब वह मनुष्योंके कान खोलता है, और उनकी शिझा पर मुहर लगाता है,
17. जिस से वह मनुष्य को उसके संकल्प से रोके और गर्व को मनुष्य में से दूर करे।
18. वह उसके प्राण को गढ़हे से बचाता है, और उसके जीवन को खड़ग की मार से बचाता हे।
19. उसे ताड़ना भी हेती है, कि वह अपके बिछौने पर पड़ा पड़ा तड़पता है, और उसकी हड्डी हड्डी में लगातार फगड़ा होता है
20. यहां तक कि उसका प्राण रोटी से, और उसका मन स्वादिष्ट भोजन से घृणा करने लगता है।
21. उसका मांस ऐसा सूख जाता है कि दिखाई नहीं देता; और उसकी हड्डियां जो पहिले दिखाई नहीं देती यीं निकल आती हैं।
22. निदान वह कबर के निकट पहुंचता है, और उसका जीवन नाश करनेवालोंके वश में हो जाता है।
23. यदि उसके लिथे कोई बिचवई स्वर्ग दूत मिले, जो हजार में से एक ही हो, जो भावी कहे। और जो मनुष्य को बताए कि उसके लिथे क्या ठीक है।
24. तो वह उस पर अनुग्रह करके कहता है, कि उसे गढ़हे में जाने से वचा ले, मुझे छुड़ौती मिली है।
25. तब उस मनुष्य की देह बालक की देह से अधिक स्वस्य और कोमल हो जाएगी; उसकी जवानी के दिन फिर लौट आएंगे।
26. वह ईश्वर से बिनती करेगा, और वह उस से प्रसन्न होगा, वह आनन्द से ईश्वर का दर्शन करेगा, और ईश्वर मनुष्य को ज्योंका त्योंधमीं कर देगा।
27. वह मनुष्योंके साम्हने गाने ओर कहने लगता है, कि मैं ने पाप किया, और सच्चाई को उलट पुलट कर दिया, परन्तु उसका बदला मुझे दिया नहीं गया।
28. उस ने मेरे प्राण क़ब्र में पड़ने से बचाया है, मेरा जीवन उजियाले को देखेगा।
29. देख, ऐसे ऐसे सब काम ईश्वर पुरुष के साय दो बार क्या वरन तीन बार भी करता है,
30. जिस से उसको क़ब्र से बचाए, और वह जीवनलोक के उजियाले का प्रकाश पाए।
31. हे अय्यूब ! कान लगाकर मेरी सुन; चुप रह, मैं और बोलूंगा।
32. यदि तुझे बात कहनी हो, तो मुझे उत्तर दे; बोल, क्योंकि मैं तुझे निदॉष ठहराना चाहता हूँ।
33. यदि नहीं, तो तु मेरी सुन; चुप रह, मैं तुझे बुद्धि की बात सिखाऊंगा।

Chapter 34

1. फिर एलीहू योंकहता गया;
2. हे बुद्धिमानो ! मेरी बातें सुनो, और हे ज्ञानियो ! मेरी बातोंपर कान लगाओ;
3. क्योंकि जैसे जीभ से चखा जाता है, वैसे ही वचन कान से परखे जाते हैं।
4. जो कुछ ठीक है, हम अपके लिथे चुन लें; जो भला है, हम आपस में समझ बूफ लें।
5. क्योंकि अय्यूब ने कहा है, कि मैं निदॉष हूँ, और ईश्वर ने मेरा हक़ मार दिया है।
6. यद्यपि मैं सच्चाई पर हूं, तौभी फूठा ठहरता हूँ, मैं निरपराध हूँ, परन्तु मेरा घाव असाध्य है।
7. अय्यूब के तुल्य कौन शूरवीर है, जो ईश्वर की निन्दा पानी की नाई पीता है,
8. जो अनर्य करनेवालोंका साय देता, और दुष्ट मनुष्योंकी संगति रखता है?
9. उस ने तो कहा है, कि मनुष्य को इस से कुछ लाभ नहीं कि वह आनन्द से परमेश्वर की संगति रखे।
10. इसलिऐ हे समझवालो ! मेरी सुनो, यह सम्भव नहीं कि ईश्वर दुष्टता का काम करे, और सर्वशकितमान बुराई करे।
11. वह मनुष्य की करनी का फल देता है, और प्रत्थेक को अपक्की अपक्की चाल का फल भुगताता है।
12. नि:सन्देह ईश्वर दुष्टता नहीं करता और न सर्वशक्तिमान अन्याय करता है।
13. किस ने पृय्वी को उसके हाथ में सौंप दिया? वा किस ने सारे जगत का प्रबन्ध किया?
14. यदि वह मनुष्य से अपना मन हटाथे और अपना आत्मा और श्वास अपके ही में समेट ले,
15. तो सब देहधारी एक संग नाश हो जाएंगे, और मनुष्य फिर मिट्टी में मिल जाएगा।
16. इसलिथे इसको सुनकर समझ रख, और मेरी इन बातोंपर कान लगा।
17. जो न्याय का बैरी हो, क्या वह शासन करे? जो पूर्ण धमीं है, क्या तू उसे दुष्ट ठहराएगा?
18. वह राजा से कहता है कि तू नीच है; और प्रधानोंसे, कि तुम दुष्ट हो।
19. ईश्वर तो हाकिमोंका पझ नहीं करता और धनी और कंगाल दोनोंको अपके बनाए हुए जानकर उन में कुछ भेद नहीं करता।
20. आधी रात को पल भर में वे मर जाते हैं, और प्रजा के लोग हिलाए जाते और जाते रहते हैं। और प्रतापी लोग बिना हाथ लगाए उठा लिए जाते हैं।
21. क्योंकि ईश्वर की आंखें मनुष्य की चालचलन पर लगी रहती हैं, और वह उसकी सारी चाल को देखता रहता है।
22. ऐसा अन्धिक्कारनेा वा घोर अन्धकार कहीं नहीं है जिस में अनर्य करनेवाले छिप सकें।
23. क्योंकि उस ने मनुष्य का कुछ समय नहीं ठहराया ताकि वह ईश्वर के सम्मुख अदालत में जाए।
24. वह बड़े बड़े बलवानोंको बिना मुछपाछ के चूर चूर करता है, और उनके स्यान पर औरोंको खड़ा कर देता है।
25. इसलिथे कि वह उनके कामोंको भली भांति जानता है, वह उन्हें रात में ऐसा उलट देता है कि वे चूर चूर हो जाते हैं।
26. वह उन्हें दुष्ट जानकर सभोंके देखते मारता है,
27. क्योंकि उन्होंने उसके पीछे चलना छोड़ दिया है, और उसके किसी मार्ग पर चित्त न लगाया,
28. यहां तक कि उनके कारण कंगालोंकी दोहाई उस तक पहुंची और उस ने दीन लोगोंकी दोहाई सुनी।
29. जब वह चैन देता तो उसे कौन दोषी ठहरा सकता है? और जब वह मुंह फेर ले, तब कौन उसका दर्शन पा सकता है? जाति भर के साय और अकेले मनुष्य, दोनोंके साय उसका बराबर व्यवहार है
30. ताकि भक्तिहीन राज्य करता न रहे, और प्रजा फन्दे में फंसाई न जाए।
31. क्या किसी ने कभी ईश्वर से कहा, कि मैं ने दणड सहा, अब मैं भविष्य में बुराई न करूंगा,
32. जो कुछ मुझे नहीं सूफ पड़ता, वह तू मुझे सिखा दे; और यदि मैं ने टेढ़ा काम किया हो, तो भविष्य में वैसा न करूंगा?
33. क्या वह तेरे ही मन के अनुसार बदला पाए क्योंकि तू उस से अप्रसन्न है? क्योंकि तुझे निर्णय करना है, न कि मुझे; इस कारण जो कुछ तुझे समझ पड़ता है, वह कह दे।
34. सब ज्ञानी पुरुष वरन जितले बुद्धिमान मेरी सुनते हैं वे मुझ से कहेंगे, कि
35. अय्यूब ज्ञान की बातें नहीं कहता, और न उसके वचन समझ के साय होते हैं।
36. भला होता, कि अय्यूब अन्त तब पक्कीझा में रहता, क्योंकि उस ने अनयिर्योंके से उत्तर दिए हैं।
37. और वह अपके पाप में विरोध बढ़ाता है; ओर हमारे बीच ताली बजाता है, और ईश्वर के पिरुद्ध बहुत सी बातें बनाता है।

Chapter 35

1. फिर एलीहू इस प्रकार और भी कहता गया,
2. कि क्या तू इसे अपना हक़ समझता है? क्या तू दावा करता है कि तेरा धर्म ईश्वर के धर्म से अधिक है?
3. जो तू कहता है कि मुझे इस से क्या लाभ? और मुझे पापी होने में और न होने में कौन सा अधिक अन्तर है?
4. मैं तुझे और तेरे सायियोंको भी एक संग उत्तर देता हूँ।
5. आकाश की ओर दृष्टि करके देख; और आकाशमणडल को ताक, जो तुझ से ऊंचा है।
6. यदि तू ने पाप किया है तो ईश्वर का क्या बिगड़ता है? यदि तेरे अपराध बहुत ही बढ़ जाएं तौभी तू उसके साय क्या करता है?
7. यदि तू धमीं है तो उसको क्या दे देता है; वा उसे तेरे हाथ से क्या मिल जाता है?
8. तेरी दुष्टता का फल तुझ ऐसे ही पुरुष के लिथे है, और तेरे धर्म का फल भी मनुष्य मात्र के लिथे है।
9. बहुत अन्धेर होने के कारण वे चिल्लाते हैं; और बलवान के बाहुबल के कारण वे दोहाई देते हैं।
10. तौभी कोई यह नहीं कहता, कि मेरा सृजनेवाला ईश्वर कहां है, जो रात में भी गीत गवाता है,
11. और हमें पृय्वी के पशुओं से अधिक शिझा देता, और आकाश के पझियोंसे अधिक बुद्धि देता है?
12. वे दोहाई देते हैं परन्तु कोई उत्तर नहीं देता, यह बुरे लोगोंके घमणड के कारण होता है।
13. निश्चय ईश्वर व्यर्य बातें कभी नहीं सुनता, और न सर्वशक्तिमान उन पर चित्त लगाता है।
14. तो तू क्योंकहता है, कि वह मुझे दर्शन नहीं देता, कि यह मुक़द्दमा उसके साम्हने है, और तू उसकी बाट जोहता हुआ ठहरा है?
15. परन्तु अभी तो उस ने क्रोध करके दणड नहीं दिया है, और अभिमान पर चित्त बहुत नहीं लगाया;
16. इस कारण अय्यूब व्यर्य मुंह खोलकर अज्ञानता की बातें बहुत बनाता है।

Chapter 36

1. फिर एलीहू ने यह भी कहा,
2. कुछ ठहरा रह, और मैं तुझ को समझाऊंगा, क्योंकि ईश्वर के पझ में मुझे कुछ और भी कहना है।
3. मैं अपके ज्ञान की बात दूर से ले आऊंगा, और अपके सिरजनहार को धमीं ठहराऊंगा।
4. निश्चय मेरी बातें फूठी न होंगी, वह जो तेरे संग है वह पूरा ज्ञानी है।
5. देख, ईश्वर सामयीं है, और किसी को तुच्छ नहीं जानता; वह समझने की शक्ति में समर्य है।
6. वह दुष्टोंको जिलाए नहीं रखता, और दीनोंको उनका हक देता है।
7. वह धमिर्योंसे अपक्की आंखें नहीं फेरता, वरन उनको राजाओं के संग सदा के लिथे सिंहासन पर बैठाता है, और वे ऊंचे पद को प्राप्त करते हैं।
8. ओर चाहे वे बेडिय़ोंमें जकड़े जाएं और दु:ख की रस्सिक्कों बान्धे जाए,
9. तौभी ईश्वर उन पर उनके काम, और उनका यह अपराध प्रगट करता है, कि उन्होंने गर्व किया है।
10. वह उनके कान शिझा सुनने के लिथे खोलता है, और आज्ञा देता है कि वे बुराई से पके रहें।
11. यदि वे सुनकर उसकी सेवा करें, तो वे अपके दिन कल्याण से, और अपके वर्ष सुख से पूरे करते हैं।
12. परन्तु यदि वे न सुनें, तो वे खड़ग से नाश हो जाते हैं, और अज्ञानता में मरते हैं।
13. परन्तु वे जो मन ही मन भक्तिहीन होकर क्रोध बढ़ाते, और जब वह उनको बान्धता है, तब भी दोहाई नहीं देते,
14. वे जवानी में मर जाते हैं और उनका जीवन लूच्चोंके बीच में नाश होता है।
15. वह दुख्यथें को उनके दु:ख से छुड़ाता है, और उपद्रव में उनका कान खोलता है।
16. परन्तु वह तुझ को भी क्लेश के मुंह में से निकालकर ऐसे चौड़े स्यान में जहां सकेती नहीं है, पहुचा देता है, और चिकना चिकना भोजन तेरी मेज पर परोसता है।
17. परन्तु तू ने दुष्टोंका सा निर्णय किया है इसलिथे निर्णय और न्याय तुझ से लिपके रहते है।
18. देख, तू जलजलाहट से उभर के ठट्ठा मत कर, और न प्रायश्चित्त को अधिक बड़ा जानकर मार्ग से मुड़।
19. क्या तेरा रोना वा तेरा बल तुझे दु:ख से छुटकारा देगा?
20. उस रात की अभिलाषा न कर, जिस में देश देश के लोग अपके अपके स्यान से मिटाए जाते हैं।
21. चौकस रह, अनर्य काम की ओर मत फिर, तू ने तो द:ख से अधिक इसी को चुन लिया है।
22. देख, ईश्वर अपके सामर्ध्य से बड़े बड़े काम करता है, उसके समान शिझक कौन है?
23. किस ने उसके चलने का मार्ग ठहराया है? और कौन उस से कह सकता है, कि तू ने अनुचित काम किया है?
24. उसके कामोंकी महिमा और प्रशंसा करने को स्मरण रख, जिसकी प्रशंसा का गीत मनुष्य गाते चले आए हैं।
25. सब मनुष्य उसको ध्यान से देखते आए हैं, और मनुष्य उसे दूर दूर से देखता है।
26. देख, ईश्वर महान और हमारे ज्ञान से कहीं पके है, और उसके वर्ष की गिनती अनन्त है।
27. क्योंकि वह तो जल की बूंदें ऊपर को खींच लेता है वे कुहरे से मेंह होकर टपकती हैं,
28. वे ऊंचे ऊंचे बादल उंडेलते हैं और मनुष्योंके ऊपर बहुतायत से बरसाते हैं।
29. फिर क्या कोई बादलोंका फैलना और उसके मणडल में का गरजना समझ सकता है?
30. देख, वह अपके उजियाले को चहुँओर फैलाता है, और समुद्र की याह को ढांपता है।
31. क्योंकि वह देश देश के लोगोंका न्याय इन्हीं से करता है, और भोजनवस्तुएं बहुतायत से देता है।
32. वह बिजली को अपके हाथ में लेकर उसे आज्ञा देता है कि दुश्मन पर गिरे।
33. इसकी कड़क उसी का समाचार देती है पशु भी प्रगट करते हैं कि अन्धड़ चढ़ा आता है।

Chapter 37

1. फिर इस बात पर भी मेरा ह्रृदय कांपता है, और अपके स्यान से उछल पड़ता है।
2. उसके बोलने का शब्द तो सुनो, और उस शब्द को जो उसके मुंह से निकलता है सुनो।
3. वह उसको सारे आकाश के तले, और अपक्की बिजली को पृय्वी की छोर तक भेजता है।
4. उसके पीछे गरजने का शब्द होता है; वह अपके प्रतापी शब्द से गरजता है, और जब उसका शब्द सुनाई देता है तब बिजली लगातार चमकने लगती है।
5. ईश्वर गरजकर अपना शब्द अद्भूत रीति से सुनाता है, और बड़े बड़े काम करता है जिनको हम नहीं समझते।
6. वह तो हिम से कहता है, पृय्वी पर गिर, और इसी प्रकार मेंह को भी और मूसलाधार वर्षा को भी ऐसी ही आज्ञा देता है।
7. वह सब मनुष्योंके हाथ पर मुहर कर देता है, जिस से उसके बनाए हुए सब मनुष्य उसको पहचानें।
8. तब वनपशु गुफाओं में घुस जाते, और अपक्की अपक्की मांदोंमें रहते हैं।
9. दक्खिन दिशा से बवणडर और उतरहिया से जाड़ा आता है।
10. ईश्वर की श्वास की फूंक से बरफ पड़ता है, तब जलाशयोंका पाट जम जाता है।
11. फिर वह घटाओं को भाफ़ से लादता, और अपक्की बिजली से भरे हुए उजियाले का बादल दूर तक फैलाता है।
12. वे उसकी बुद्धि की युक्ति से इधर उधर फिराए जाते हैं, इसलिथे कि जो आज्ञा वह उनको दे, उसी को वे बसाई हुई पृय्वी के ऊपर पूरी करें।
13. चाहे ताड़ना देने के लिथे, चाहे अपक्की पृय्वी की भलाई के लिथे वा मनुष्योंपर करुणा करने के लिथे वह उसे भेजे।
14. हे अय्यूब ! इस पर कान लगा और सुन ले; चुपचाप खड़ा रह, और ईश्वर के आश्चर्यकमॉं का विचार कर।
15. क्या तू जानता है, कि ईश्वर क्योंकर अपके बादलोंको आज्ञा देता, और अपके बादल की बिजली को चमकाता है?
16. क्या तू घटाओं का तौलना, वा सर्वज्ञानी के आश्चर्यकर्म जानता है?
17. जब पृय्वी पर दक्खिनी हवा ही के कारण से सन्नाटा रहता है तब तेरे वस्त्र गर्म हो जाते हैं?
18. फिर क्या तू उसके साय आकाशमणडल को तान सकता है, जो ढाले हुए दर्पण के तुल्य दृढ़ है?
19. तू हमें यह सिखा कि उस से क्या कहना चाहिथे? क्योंकि हम अन्धिक्कारने के कारण अपना व्याख्यान ठीक नहीं रच सकते।
20. क्या उसको बनाया जाए कि मैं बोलना चाहता हूँ? क्या कोई अपना सत्यानाश चाहता है?
21. अभी तो आकाशमणडल में का बड़ा प्रकाश देखा नहीं जाता जब वायु चलकर उसको शुद्ध करती है।
22. उत्तर दिशा से सुनहली ज्योति आती है ईश्वर भययोग्य तेज से आभूषित है।
23. सर्वशक्तिमान जो अति सामयीं है, और जिसका भेद हम पा नहीं सकते, वह न्याय और पूर्ण धर्म को छोड़ अत्याचार नहीं कर सकता।
24. इसी कारण सज्जन उसका भय मानते हैं, और जो अपक्की दृष्टि में बुद्धिमान हैं, उन पर वह दृष्टि नहीं करता।

Chapter 38

1. तब यहोवा ने अय्यूब को आँधी में से यूं उत्तर दिया,
2. यह कौन है जो अज्ञानता की बातें कहकर युक्ति को बिगाड़ना चाहता है?
3. पुरुष की नाई अपक्की कमर बान्ध ले, क्योंकि मैं तुझ से प्रश्न करता हूँ, और तू मुझे उत्तर दे।
4. जब मैं ने पृय्वी की नेव डाली, तब तू कहां या? यदि तू समझदार हो तो उत्तर दे।
5. उसकी नाप किस ने ठहराई, क्या तू जानता है उस पर किस ने सूत खींचा?
6. उसकी नेव कौन सी वस्तु पर रखी गई, वा किस ने उसके कोने का पत्यर लिठाया,
7. जब कि भोर के तारे एक संग आनन्द से गाते थे और परमेश्वर के सब पुत्र जयजयकार करते थे?
8. फिर जब समुद्र ऐसा फूट निकला मानो वह गर्भ से फूट निकला, तब किस ने द्वार मूंदकर उसको रोक दिया;
9. जब कि मैं ने उसको बादल पहिनाया और घोर अन्धकार में लमेट दिया,
10. और उसके लिथे सिवाना बान्धा और यह कहकर बेंड़े और किवाड़े लगा दिए, कि
11. यहीं तक आ, और आगे न बढ़, और तेरी उमंडनेवाली लहरें यहीं यम जाएं?
12. क्या तू ने जीवन भर में कभी भोर को आज्ञा दी, और पौ को उसका स्यान जताया है,
13. ताकि वह पृय्वी की छोरोंको वश में करे, और दुष्ट लोग उस में से फाड़ दिए जाएं?
14. वह ऐसा बदलता है जैसा मोहर के नीचे चिकनी मिट्टी बदलती है, और सब वस्तुएं मानो वस्त्र पहिने हुए दिखाई देती हैं।
15. दुष्टोंसे उनका उजियाला रोक लिया जाता है, और उनकी बढ़ाई हुई बांह तोड़ी जाती है।
16. क्या तू कभी समुद्र के सोतोंतक पहुंचा है, वा गहिरे सागर की याह में कभी चला फिरा है?
17. क्या मृत्यु के फाटक तुझ पर प्रगट हुए, क्या तू घोर अन्धकार के फाटकोंको कभी देखन पाया है?
18. क्या तू ने पृय्वी की चौड़ाई को पूरी रीति से समझ लिया है? यदि तू यह सब जानता है, तो बतला दे।
19. उजियाले के निवास का मार्ग कहां है, और अन्धिक्कारने का स्यान कहां है?
20. क्या तू उसे उसके सिवाने तक हटा सकता है, और उसके घर की डगर पहिचान सकता है?
21. नि:सन्देह तू यह सब कुछ जानता होगा ! क्योंकि तू तो उस समय उत्पन्न हुआ या, और तू बहुत आयु का है।
22. फिर क्या तू कभी हिम के भणडार में पैठा, वा कभी ओलोंके भणडार को तू ने देखा है,
23. जिसको मैं ने संकट के समय और युद्ध और लड़ाई के दिन के लिथे रख छोड़ा है?
24. किस मार्ग से उजियाला फैलाया जाता है, ओर पुरवाई पृय्वी पर बहाई जाती है?
25. महावृष्टि के लिथे किस ने नाला काटा, और कड़कनेवाली बिजली के लिथे मार्ग बनाया है,
26. कि निर्जन देश में और जंगल में जहां कोई मनुष्य नहीं रहता मेंह बरसाकर,
27. उजाड़ ही उजाड़ देश को सींचे, और हरी घास उगाए?
28. क्या मेंह का कोई पिता है, और ओस की बूंदें किस ने उत्पन्न की?
29. किस के गर्भ से बर्फ निकला है, और आकाश से गिरे हुए पाले को कौन उत्पन्न करता है?
30. जल पत्यर के समान जम जाता है, और गहिरे पानी के ऊपर जमावट होती है।
31. क्या तू कचपचिया का गुच्छा गूंय सकता वा मृगशिरा के बन्धन खोल सकता है?
32. क्या तू राशियोंको ठीक ठीक समय पर उदय कर सकता, वा सप्तषिर् को सायियोंसमेत लिए चल सकता है?
33. क्या तू आकाशमणडल की विधियां जानता और पृय्वी पर उनका अधिक्कारने ठहरा सकता है?
34. क्या तू बादलोंतक अपक्की वाणी पहुंचा सकता है ताकि बहुत जल बरस कर तुझे छिपा ले?
35. क्या तू बिजली को आज्ञा दे सकता है, कि वह जाए, और तुझ से कहे, मैं उपस्यित हूँ?
36. किस ने अन्त:करण में बुद्धि उपजाई, और मन में समझने की शक्ति किस ने दी है?
37. कौन बुद्धि से बादलोंको गिन सकता है? और कौन आकाश के कुप्पोंको उणडेल सकता है,
38. जब धूलि जम जाती है, और ढेले एक दूसरे से सट जाते हैं?
39. क्या तू सिंहनी के लिथे अहेर पकड़ सकता, और जवान सिंहोंका पेट भर सकता है,
40. जब वे मांद में बैठे होंऔर आड़ में घात लगाए दबक कर बैठे हों?
41. फिर जब कौवे के बच्चे ईश्वर की दोहाई देते हुए निराहार उड़ते फिरते हैं, तब उनको आहार कौन देता है?

Chapter 39

1. क्या तू जानता है कि पहाड़ पर की जंगली बकरियां कब बच्चे देती हैं? वा जब हरिणियां बियाती हैं, तब क्या तू देखता रहता है?
2. क्या तू उनके महीने गिन सकता है, क्या तू उनके बियाने का समय जानता है?
3. जब वे बैठकर अपके बच्चोंको जनतीं, वे अपक्की पीड़ोंसे छूट जाती हैं?
4. उनके बच्चे ह्रृष्टपुष्ट होकर मैदान में बढ़ जाते हैं; वे निकल जाते और फिर नहीं लौटते।
5. किस ने बनैले गदहे को स्वाधीन करके छोड़ दिया है? किस ने उसके बन्धन खोले हैं?
6. उसका घर मैं ने निर्जल देश को, और उसका निवास लोनिया भूमि को ठहराया है।
7. वह नगर के कोलाहल पर हंसता, और हांकनेवाले की हांक सुनता भी नहीं।
8. पहाड़ोंपर जो कुछ मिलता है उसे वह चरता वह सब भांति की हरियाली ढूंढ़ता फिरता है।
9. क्या जंगली सांढ़ तेरा काम करने को प्रसन्न होगा? क्या वह तेरी चरनी के पास रहेगा?
10. क्या तू जंगली सांढ़ को रस्से से बान्धकर रेघारियोंमें चला सकता है? क्या वह नालोंमें तेरे पीछे पीछे हेंगा फेरेगा?
11. क्या तू उसके बड़े बल के कारण उस पर भरोसा करेगा? वा जो परिश्र्म का काम तेरा हो, क्या तू उसे उस पर छोड़ेगा?
12. क्या तू उसका विश्वास करेगा, कि वह तेरा अनाज घर ले आए, और तेरे खलिहान का अन्न इकट्ठा करे?
13. फिर शुतुरमुगीं अपके पंखोंको आनन्द से फुलाती है, परन्तु क्या थे पंख और पर स्नेह को प्रगट करते हैं?
14. क्योंकि वह तो अपके अणडे भूमि पर छोड़ देती और धूलि में उन्हें गर्म करती है;
15. और इसकी सुधि नहीं रखती, कि वे पांव से कुचले जाएंगे, वा कोई वनपशु उनको कुचल डालेगा।
16. वह अपके बच्चोंसे ऐसी कठोरता करती है कि मानो उसके नहीं हैं; यद्यपि उसका कष्ट अकारय होता है, तौभी वह निश्चिन्त रहती है;
17. क्योंकि ईश्वर ने उसको बुद्धिरहित बनाया, और उसे समझने की शक्ति नहीं दी।
18. जिस समय वह सीधी होकर अपके पंख फैलाती है, तब घोड़े और उसके सवार दोनोंको कुछ नहीं समझती है।
19. क्या तू ने घोड़े को उसका बल दिया है? क्या तू ने उसकी गर्दन में फहराती हुई अयाल जमाई है?
20. क्या उसको टिड्डी की सी उछलने की शक्ति तू देता है? उसके कुंक्कारने का शब्द डरावना होता है।
21. वह तराई में टाप मारता है और अपके बल से हषिर्त रहता है, वह हयियारबन्दोंका साम्हना करने को निकल पड़ता है।
22. वह डर की बात पर हंसता, और नहीं घबराता; और तलवार से पीछे नहीं हटता।
23. तर्कश और चमकता हुआ सांग ओर भाला उस पर खड़खड़ाता है।
24. वह रिस और क्रोध के मारे भूमि को निगलता है; जब नरसिंगे का शब्द सुनाई देता है तब वह रुकता नहीं।
25. जब जब नरसिंगा बजता तब तब वह हिन हिन करता है, और लड़ाई और अफसरोंकी ललकार और जय-जयकार को दूर से सूंध लेता हे।
26. क्या तेरे समझाने से बाज़ उड़ता है, और दक्खिन की ओर उड़ने को अपके पंख फैलाता है?
27. क्या उकाब तेरी आज्ञा से ऊपर चढ़ जाता है, और ऊंचे स्यान पर अपना घोंसला बनाता है?
28. वह चट्टान पर रहता और चट्टान की चोटी और दृढ़स्यान पर बसेरा करता है।
29. वह अपक्की आंखोंसे दूर तक देखता है, वहां से वह अपके अहेर को ताक लेता है।
30. उसके बच्चे भी लोहू चूसते हैं; और जहां घात किए हुए लोग होते वहां वह भी होता है।

Chapter 40

1. फिर यहोवा ने अय्यूब से यह भी कहा:
2. क्या जो बकवास करता है वह सर्वशक्तिमान से फगड़ा करे? जो ईश्वर से विवाद करता है वह इसका उत्तर दे।
3. तब अय्यूब ते यहोवा को उत्तर दिया:
4. देख, मैं तो तुच्छ हूँ, मैं तुझे क्या उत्तर दूं? मैं अपक्की अंगुली दांत तले दबाता हूँ।
5. एक बार तो मैं कह चुका, परन्तु और कुछ न कहूंगा: हां दो बार भी मैं कह चुका, परन्तु अब कुछ और आगे न बढ़ूंगा।
6. तब यहोवा ने अय्यूब को आँधी में से यह उत्तर दिया:
7. पुरुष की नाई अपक्की कमर बान्ध ले, मैं तुझ से प्रश्न करता हूँ, और तू मुझे बता।
8. क्या तू मेरा न्याय भी व्यर्य ठहराएगा? क्या तू आप निदॉष ठहरने की मनसा से मुझ को दोषी ठहराएगा?
9. क्या तेरा बाहुबल ईश्वर के तुल्य है? क्या तू उसके समान शब्द से गरज सकता है?
10. अब अपके को महिमा और प्रताप से संवार और ऐश्वर्य्य और तेज के वस्त्र पहिन ले।
11. अपके अति क्रोध की बाढ़ को बहा दे, और एक एक घमणडी को देखते ही उसे नीचा कर।
12. हर एक घमणडी को देखकर फुका दे, और दुष्ट लोगोंको जहां खड़े होंवहां से गिरा दे।
13. उनको एक संग मिट्टी में मिला दे, और उस गुप्त स्यान में उनके मुंह बान्ध दे।
14. तब मैं भी तेरे विषय में मान लूंगा, कि तेरा ही दहिना हाथ तेरा उद्वार कर सकता है।
15. उस जलगज को देख, जिसको मैं ने तेरे साय बनाया है, वह बैल की नाई घास खाता है।
16. देख उसकी कटि में बल है, और उसके पेट के पट्ठोंमें उसकी सामर्य्य रहती है।
17. वह अपक्की पूंछ को देवदार की नाई हिलाता है; उसकी जांधोंकी नसें एक दूसरे से मिली हुई हैं।
18. उसकी हट्टियां मानो पीतल की नलियां हैं, उसकी पसुलियां मानो लोहे के बेंड़े हैं।
19. वह ईश्वर का मुख्य कार्य है; जो उसका सिरजनहार हो उसके निकट तलवार लेकर आए !
20. निश्चय पहाड़ोंपर उसका चारा मिलता है, जहां और सब वनपशु कालोल करते हैं।
21. वह छतनार वृझोंके तले नरकटोंकी आड़ में और कीच पर लेटा करता है
22. छतनार वृझ उस पर छाया करते हैं, वह नाले के बेंत के वृझोंसे घिरा रहता है।
23. चाहे नदी की बाढ़ भी हो तौभी वह न घबराएगा, चाहे यरदन भी बढ़कर उसके मुंह तक आए परन्तु वह निर्भय रहेगा।
24. जब वह चौकस हो तब क्या कोई उसको पकड़ सकेगा, वा फन्दे लगाकर उसको नाय सकेगा?

Chapter 41

1. फिर क्या तू लिब्यातान अयवा मगर को बंसी के द्वारा खींच सकता है, वा डोरी से उसकी जीभ दबा सकता है?
2. क्या तू उसकी नाक में नकेल लगा सकता वा उसका जबड़ा कील से बेध सकता है?
3. क्या वह तुझ से बहुत गिड़गिड़ाहट करेगा, वा तुझ से मीठी बातें बोलेगा?
4. क्या वह तुझ से वाचा बान्ध्ेगा कि वह सदा तेरा दास रहे?
5. क्या तू उस से ऐसे खेलेगा जैसे चिडिय़ा से, वा अपक्की लड़कियोंका जी बहलाने को उसे बान्ध रखेगा?
6. क्या मछुओं के दल उसे बिकाऊ माल समझेंगे? क्या वह उसे व्योपारियोंमें बांट देंगे?
7. क्या तू उसका चमड़ा भाले से, वा उसका सिर मछुवे के तिरशूलोंसे भर सकता है?
8. तू उस पर अपना हाथ ही धरे, तो लड़ाई को कभी न भूलेगा, और भविष्य में कभी ऐसा न करेगा।
9. देख, उसे पकड़ने की आशा निष्फल रहती है; उसके देखने ही से मन कच्चा पड़ जाता है।
10. कोई ऐसा साहसी नहीं, जो उसको भड़काए; फिर ऐसा कौन है जो मेरे साम्हने ठहर सके?
11. किस ने पुफे पहिले दिया है, जिसका बदला मुझे देना पके ! देख, जो कुछ सारी धरती पर है सो मेरा है।
12. मैं उसके अंगोंके विषय, और उसके बड़े बल और उसकी बनावट की शोभा के विषय चुप न रहूंगा।
13. उसके ऊपर के पहिरावे को कौन उतार सकता है? उसके दांतोंकी दोनोंपांतियोंके अर्यात्‌ जबड़ोंके बीच कौन आएगा?
14. उसके मुख के दोनोंकिवाड़ कौन खोल सकता है? उसके दांत चारोंओर से डरावने हैं।
15. उसके छिलकोंकी रेखाएं घमण्ड का कारण हैं; वे मानो कड़ी छाप से बन्द किए हुए हैं।
16. वे एक दूसरे से ऐसे जुड़े हुए हैं, कि उन में कुछ वायु भी नहीं पैठ सकती।
17. वे आपस में मिले हुए और ऐसे सटे हुए हैं, कि अलग अलग नहीं हो सकते।
18. फिर उसके छींकने से उजियाला चमक उठता है, और उसकी आंखें भोर की पलकोंके समान हैं।
19. उसके मुंह से जलते हुए पक्कीते निकलते हैं, और आग की चिनगारियां छूटती हैं।
20. उसके नय्ुानोंसे ऐसा धुआं निकलता है, जैसा खौलती हुई हांड़ी और जलते हुए नरकटोंसे।
21. उसकी सांस से कोयले सुलगते, और उसके मुंह से आग की लौ निकलती है।
22. उसकी गर्दन में सामर्य्य बनी रहती है, और उसके साम्हने डर नाचता रहता है।
23. उसके मांस पर मांस चढ़ा हुआ है, और ऐसा आपस में सटा हुआ है जो हिल नहीं सकता।
24. उसका ह्रृदय पत्यर सा दृढ़ है, वरन चक्की के निचले पाट के समान दृढ़ है।
25. जब वह उठने लगता है, तब सामयीं भी डर जाते हैं, और डर के मारे उनकी सुध बुध लोप हो जाती है।
26. यदि कोई उस पर तलवार चलाए, तो उस से कुछ न बन पकेगा; और न भाले और न बछीं और न तीर से।
27. वह लोहे को पुआल सा, और पीतल को सड़ी लकड़ी सा जानता है।
28. वह तीर से भगाया नहीं जाता, गोफन के पत्यर उसके लिथे भूसे से ठहरते हैं।
29. लाठियां भी भूसे के समान गिनी जाती हैं; वह बछीं के चलने पर हंसता है।
30. उसके निचले भाग पैने ठीकरे के समान हैं, कीच पर मानो वह हेंगा फेरता है।
31. वह गहिरे जल को हंडे की नाई मय्ता है: उसके कारण नील नदी मरहम की हांडी के समान होती है।
32. वह अपके पीछे चमकीली लीक छोड़ता जाता है। गहिरा जल मानो श्वेत दिखाई देने लगता है।
33. धरती पर उसके तुल्य और कोई नहीं है, जो ऐसा निर्भय बनाया गया है।
34. जो कुछ ऊंचा है, उसे वह ताकता ही रहता है, वह सब घमणिडयोंके ऊपर राजा है।

Chapter 42

1. तब अय्यूब यहोवा को उत्तर दिया;
2. मैं जानता हूँ कि तू सब कुछ कर सकता है, और तेरी युक्तियोंमें से कोई रुक नहीं सकती।
3. तू कौन है जो ज्ञान रहित होकर युक्ति पर परदा डालता है? परन्तु मैं ने तो जो नहीं समझता या वही कहा, अर्यात्‌ जो बातें मेरे लिथे अधिक कठिन और मेरी समझ से बाहर यीं जिनको मैं जानता भी नहीं या।
4. मैं निवेदन करता हूं सुन, मैं कुछ कहूंगा, मैं तुझ से प्रश्न करता हूँ, तू मुझे बता दे।
5. मैं कानोंसे तेरा समाचार सुना या, परन्तु अब मेरी आंखें तुझे देखती हैं;
6. इसलिथे मुझे अपके ऊपर घृणा आती है, और मैं धूलि और राख में पश्चात्ताप करता हूँ।
7. और ऐसा हुआ कि जब यहोवा थे बातें अय्यूब से कह चुका, तब उस ने तेमानी एलीपज से कहा, मेरा क्रोध तेरे और तेरे दोनोंमित्रोंपर भड़का है, क्योंकि जैसी ठीक बात मेरे दास अय्यूब ने मेरे विषय कही है, वैसी तुम लोगोंने नहीं कही।
8. इसलिथे अब तुम सात बैल और सात मेढ़े छांटकर मेरे दास अय्यूब के पास जाकर अपके निमित्त होमबलि चढ़ाओ, तब मेरा दास अय्यूब तुम्हारे लिथे प्रार्यना करेगा, क्योंकि उसी की मैं ग्रहण करूंगा; और नहीं, तो मैं तुम से तुम्हारी मूढ़ता के योग्य बर्ताव करूंगा, क्योंकि तुम लोगोंने मेरे विषय मेरे दास अय्यूब की सी ठीक बात नहीं कही।
9. यह सुन तेमानी एलीपज, शूही बिल्दद और नामाती सोपर ने जाकर यहोवा की आाज्ञा के अनुसार किया, और यहोवा ने अय्यूब की प्रार्यना ग्रहण की।
10. जब अय्यूब ने अपके मित्रोंके लिथे प्रार्यना की, तब यहोरवा ने उसका सारा दु:ख दूर किया, और जितना अय्यूब का पहिले या, उसका दुगना यहोवा ने उसे दे दिया।
11. तब उसके सब भाई, और सब बहिनें, और जितने पहिले उसको जानते पहिचानते थे, उन सभोंने आकर उसके यहां उसके संग भोजन किया; और जितनी विपत्ति यहोवा ने उस पर डाली यी, उस सब के विषय उन्होंने विलाप किया, और उसे शान्ति दी; और उसे एक एक सिक्का ओर सोने की एक एक बाली दी।
12. और यहोवा ने अय्यूब के पिछले दिनोंमें उसको अगले दिनोंसे अधिक आशीष दी; और उसके चौदह हजार भेंड़ बकरियां, छ:हजार ऊंट, हजार जोड़ी बैल, और हजार गदहियां हो गई।
13. और उसके सात बेटे ओर तीन बेटियां भी उत्पन्न हुई।
14. इन में से उस ने जेठी बेटी का नाम तो यमीमा, दूसरी का कसीआ और तीसरी का केरेन्हप्पूक रखा।
15. और उस सारे देश में एंसी स्त्रियां कहीं न यीं, जो अय्यूब की बेटियोंके समान सुन्दर हों, और उनके पिता ने उनको उनके भाइयोंके संग ही सम्पत्ति दी।
16. इसके बाद अय्यूब एक सौ चालीस वर्ष जीवित रहा, और चार पीढ़ी तक अपना वंश देखने पाया।
17. निदान अय्यूब वृद्धावस्या में दीर्घायु होकर मर गया।


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